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यह गली बिकाऊ नहीं/11
 

यह गली बिकाऊ नहीं । 11 आराम बोलने लग गयीं । कुछ तो उसके सामने अपने को शर्मीली जताने के लिए शशरमाने का अभिनय करने लगीं। 'अंदर से पकने पर फल बाहर से रंग पकड़ते हैं । शायद लड़कियों की भी यही प्रकृति है।'—इस तरह मुत्तुकुमरन् की कल्पना सुगबुगायी उसके आने के बाद यद्यपि उनकी खिलखिलाहट थम गयीं, पर होंठों में मुस्कराहटें तैरती रहीं और बातें जारी रहीं। यह देखकर मुत्तुकुमरन को यों लगा कि वे उसके लिए आधी हँसी सुरक्षितं रखे हुई हैं।

उसमें से कुछेक के होंठ सुन्दर थे : कुछेक के नेत्र सुन्दर थे। कुछेक की उंगलियाँ मुलायम लगीं। कुछेक नाक-नक्शा से अच्छी थीं । कुछेक की सुन्दरता ऐसे विभाजन की सीमा में ही नहीं आयीं ।

लड़कियां, जिससे अपनी मुस्कान, दृष्टि या बात आदि छिपाना चाहती हैं, उसे विशेष रूप से जताने के लिए भी कोई चीज़ होती है-दुराव-छुपाव का यही रहस्यार्थ होता है।

लुंगी-बनियान वाला रिसेप्शन हाल में फिर आया तो सबका ध्यान उसकी ओर गया।



दो
 

"बारिश की वजह से बंगलोर का प्लेन आधा घंटा लेट है। इसलिए मालिक के आने में आधा घंटा और लगेगा!"

सबके चेहरे जैसे उस बिलम्ब-सूचना से खिल गये । उसके जाने के थोड़ी देर बाद लुंगी-बनियान पहने दूसरा व्यक्ति आया, जिसके कंधे पर मैला-सा अंगोछा था। उसके हाथ में एक बड़ा ट्रे था, जिसमें कॉफ़ी के दस-बारह गरमागरम प्याले थे। सबको कॉफ़ी मिली।

कॉफ़ी पीने के बाद एक युवती हिम्मत करके उठी और मुत्तुकुमरन् की बगल में मा बैठी । चंदन की खुशबू से उसकी देह महक रही थी। उसने पूछा, "क्या आप भी 'ट्रप' में सम्मिलित होने के लिए आये हैं ?" मुत्तुकुमरन् उसकी स्वर-माधुरी में इतना खो गया था कि प्रश्न पर ध्यान ही नहीं दिया उसने पूछा, "आपने क्या कहा ?"

उसने हँसते हुए अपना सवाल दुहराया।

"गोपाल को मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। तब वह उन दिनों मेरे साथ बायस कंपनी में स्त्री की भूमिका किया करता था। मैं तो बस यों ही उससे मिलने चला आया!"