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120/यह गली बिकाऊ नहीं
 

"हमारे इर्द-गिर्द मँडराने बालों में कितने ही ऐसे हैं, जो इन विषधर नागों से कम क्रूर नहीं हैं। जब हम उनसे ही नहीं डरते तो इन बेचारे बेजुबान प्राणियों से क्यों डरें?"-मुत्तुकुमरन् ने पूछा।

"किसी आदत की वजह से इस मन्दिर में लागातार साँप आते रहते हैं। यदि लोग उन्हें न सतायें तो वे भी नहीं काटते।" मार्ग-दर्शक के रूप में अब्दुल्ला द्वारा भेजे हुए आदमी ने कहा।

साँपों के मन्दिर से वे पिनांग नगर की बीथियों से चलकर एक बुद्ध मन्दिर में गए । शयनासन में बुद्ध की एक बड़ी प्रतिमा उस मन्दिर में थी । एक पहाड़ी पर चढ़ते हुए उन्होंने रास्ते में एक पुराना हिन्दु मन्दिर भी देखा।

पहाड़ पर एक जगह कारें खड़ी करके मार्ग-दर्शक ने उन्हें डोरियान, रम्बुत्तान, जैसे फल खरीदकर चखने को दिए। डोरियान फल की बू से माधवी को उबकायी आयी। मुत्तुकुमरन् ने तो उस फल की फाँक खाकर कहा कि उसका स्वाद मधु- मधुर है । माधवी भी नाक पकड़कर उस फल के पिलपिले गूदे को एक झटके में निगल गयी। डोरियान कटहल की फाँक से भी सफ़ेद और सख़्त था। पर वह बहुत मीठा था। भगवान ने न जाने क्यों, उस मीठे और जायकेदार फल में ऐसी बदबू भर रखी थी!

वे पहाड़ी सड़कों से गुजरते हुए पिनांग द्वीप की सभी दिशाओं में हो आए। गोपाल यद्यपि उनके साथ गया, फिर भी अपनी हैसियत और बड़ाई की धाक जमाने के लिए उनसे दूर ही रहा। किसी से ज्यादा मिला-जुला नहीं। सिर्फ़ उसके उपयोग के वास्ते अब्दुल्ला ने एक 'कॅडिलक्' स्पेशल कस्टम की कार का प्रबंध कर रखा था। सभी जगहों में वही कार आगे-आगे गयी और बाकी सब कारें पीछे- पीछे।



सत्रह
 

दूसरे दिन शाम को, उनकी मंडली के प्रथम नाटक का मंचन होना था। इसलिए उस दिन सबेरे वे लोग कहीं बाहर नहीं गए। दोपहर को गोपाल अपने कुछ साथियों के साथ, मंच की व्यवस्था, सीन-सेटिंग के प्रबन्ध आदि का निरीक्षण करने के लिए थियेटर हाल तक हो आया ।

उस दिन दोपहर का भोजन अब्दुल्ला के एक मित्र सेन ई नाम के चीनी दोस्त के यहाँ था। किसी-न-किसी बहाने अब्दुल्ला माधवी के इर्द-गिर्द यों मँडराते रहे,