"छिः ! आप भी कोई मर्द हैं ? एक औरत के सामने ऐसी बातें करते आपको
शरम नहीं आती?"
माधवी के मुख से ऐसी अप्रत्याशित बात सुनकर गोपाल सकपका गया । आज तक माधवी ने उसके प्रति इतने कड़े और मर्यादा से बाहर के शब्दों का प्रयोग नहीं किया था। यह उसके पिछले दिनों का अनुभव था। पर आज...? जितने भी कड़े शब्दों का इस्तेमाल संभव था, उतना कर दिया गया।
वह माधवी, जो उसके हुक्म सिर-आँखों पर बजा लाती थी, आज रोष- तोष, मान-अभिमान से भरकर नागिन की तरह बिफर उठी थी। इसका क्या कारण है ? जब कारण का मूल समझ में आ गया तो गोपाल का सारा क्रोध मुत्तुकुमरन् पर निकला । उसने पूछा-"क्यों उस्ताद ? यह सब क्या तुम्हारी लगायी है ?"
"इसीलिए तो मैंने कहा था कि मैं तुम लोगों के साथ नहीं आऊँगा!" मुत्तुकुमरन ने गोपाल की बातों का उत्तर दिया तो माधवी को उसपर गुस्सा चढ़ आया।
"इसका क्या मतलब ? यही न कि आपके साथ आने पर मैं मान-अभिमान और रोब दाब से रहती हूँ और आपके न आने पर आवारा होकर फिरती ?" माधवी आग-बबूला होकर मुत्तुकुमरन् ही पर बरस पड़ी। उन दोनों में 'मनमुटाब होते देखकर गोपाल वहाँ से खिसक गया। माधवी ने मुत्तुकुमरन को भी नहीं छोड़ा । कड़े शब्दों में टोका-"जब आप ही बेमुरव्वती की बातें करने लगे तो फिर मेरा आसरा ही कौन ? इस से दूसरे तो फ़ायदा उठाने की ही सोचेंगे।"
"मैंने कौन-सी बेमुरव्वती की बात कर दी कि तुम इस तरह चिल्लाती हो ? वह मुझपर उँगली उठा रहा है कि ये सब तुम्हारे काम हैं, ये सब तुम्हारे काम हैं ! मैंने पूछा कि फिर मुझे क्यों बुला लाये ? इसमें न जाने मेरा दोष क्या है कि तुम नाहक मुझपर गुस्सा उतार रही हो !"
"आपकी बातों से मुझे ऐसा लगा कि आप नहीं आते तो मैं अपनी मर्जी से आवारा घूमती-फिरती ! इसीलिए मैंने"
"वे लोग अभी भी तुम्हारे बारे में वैसा ही समझ रहे हैं।"
“समझें तो समझे ! उसकी मुझे कोई चिंता नहीं। आप मुझे तो सही समझे-इतना ही मैं चाहती हूँ। आप भी मुझे गलत समझने लगेंगे तो मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा !"
"इतने दिनों से बर्दाश्त ही तो करती रही हो ! एकाएक तुम्हारे व्यवहार में परिवर्तन देखकर वह हैरान है !" मुत्तुकुमरन् को अपनी ही यह बात पसंद नहीं आयी तो उसने उससे कुछ भी बोलना बन्द कर सिर झुका लिया।
भोज के बाद, अपने आवास लौटते हुए भी वे आपस में नहीं बोले । गोपाल और अब्दुल्ला-दोनों ने एक-दूसरे की तरफ़ से शायद मुँह ही फेर लिया। इधर