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126/यह गली बिकाऊ नहीं
 

मुत्तुकुमरन् के पास जाते-जाते नरम हो गया। पिछले तीन दिनों से उन दोनों के बीच जो मौन छाया था, जो वैमनस्य धर किये हुए था, उसे तोड़ने के प्रयत्न में वह फिर बोला, "सभी 'शॉपिंग' को जा रहे हैं। हम पिनांग छोड़कर आज रात को ही रवाना हो रहे हैं । तुम भी जाकर कुछ खरीदना चाहो तो खरीद लो । माधवी के हाथ तुम्हारे लिए भी रुपये दे दिये हैं। चाहो तो कार भी ले जाओ। दोनों साथ ही जाकर खरीदारी कर आओ। बाद को चलते समय 'टाइम' नहीं रहेगा!"

"••••••."

"यह क्या ? तुम सुनते ही नहीं ! क्या तुम्हारे ख्याल से मैं बेकार ही बके जा रहा हूँ?"

"जो कहना है, सो कह दिया न ?"

"मुझे क्या ? तुम्हारी खातिर ही कहा !"

"माना तुम यह दिखाना चाहते हो कि मेरा तुम बहुत ख्याल करते हो?"

"इस तरह ताना न मारो, उस्ताद ! मुझसे सहा नहीं जाता !"

"तो क्या करोगे ?"

"अच्छा, अब तुमसे आगे बोलना ठीक नहीं लगता है. गुस्सा पीकर बैठे हो।" इतना कहकर गोपाल वहाँ से खिसक गया।

उसके जाने के थोड़ी देर बाद माधवी आयी। उसमें मुत्तुकुमरन् का आमना- सामना करने का साहस नहीं था। इसलिए वह कहीं दूर देखती हुई खड़ी रही। उसके हाथ में गोपाल का दिया हुआ रुपयों वाला लिफ़ाफ़ा था। वह बोली- "रुपया दिया है.'"शॉपिंग' में जाना है तो खर्च के लिए"

"किसके खर्च के लिए•••"

"आपके और मेरे.." वह सहमी हुई थी।

"तुमने अपने लिए लिया, यह तो ठीक है । पर मेरे लिए कैसे ले लिया?"

"मैंने नहीं लिया ! उन्हींने दिया।"

"दिया है तो रख लो ! मुझे कहीं खरीदारी-वरीदारी के लिए नहीं जाना।" "जाना तो मुझे भी नहीं हैं।"

"छि:-छिः ! ऐसा न कहो! जाओ, जो चाहो, खरीद लो! उदयरेखा को देखो, दो दिनों से नाइलान, नाईलैक्स वगैरह पहनकर बनी-उनी फिर रही हैं । उससे कम की चीज़ तुम क्यों पहनो ? तुम तो हीरोइन' ठहरी !"

"ऐसी बातें आपके मुंह से शोभा देती हैं क्या ? मेरे बारे में आपका जी इतना खट्टा हो गया है कि उदयरेखा की और मुझे एक तराजू पर तोल रहे हैं !"

"यहाँ किसी का जी नहीं बिगड़ा। अपना-अपना मन तोलकर देखें तो पता चले।"

"पता क्या चलेगा?"