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127/यह गली बिकाऊ नहीं
 


"दो-तीन दिनों से कैसा सलूक कर रही हो?"

"...'यही सवाल आपसे भी तो दुहराया जा सकता है"-कहती हुई माधवी उसके पास गयी और बड़े धीमे स्वर में गिड़गिड़ाती-सी फुसफुसायी, ताकि सिर्फ उसी के कानों में सुनायी दे-"देखिए, आप नाहक अपना दिल न दुखाइये। मैं अब कभी भी आपके साथ विश्वासघात नहीं करूंगी ! इस जगह तो मैं अबला हूँ। आप भी साथ न रहें तो मेरा कोई सहारा नहीं !"

"शक्तिहीन की शरण में जाने से क्या फायदा ?"

"यदि आप में शक्ति नहीं तो इस दुनिया में और किसी में नहीं है । व्यर्थ में बार-बार मेरी परीक्षा न लीजिए !"

"तो फिर तीन दिनों से मेरे साथ बोली क्यों नहीं ?"

"आप क्यों नहीं बोले ?"

"मैं स्वभाव से ही क्रोधी प्राणी हूँ और मर्द हूँ "यह जानकर ही मैं खुद आकर आपसे हाथ जोड़ रही हूँ !"

"तुम बड़ी होशियार हो !"

"वह होशियारी भी आपकी बदौलत ही नसीब हुई है !"

मुत्तुकुमरन के चेहरे से रूखी नाराज़गी की परत उतर गयी और उसकी जगह मुस्कान ने ले ली । उसे पास खींचकर सीने से लगा लिया। माधवी उसके कानों में बोली, "द्वार खुला है ।"

"हा-हाँ ! जाकर बंद कर आओ। कहीं अब्दुल्ला ने देख लिया तो जलेगा-भुनेगा कि मैं ख़ाक मालदार हूँ। मुझे यह माल नहीं मिला। और जो पैसे-पैसे का मोहताज है, माल उसके पैरों पर लोट रहा है।"

"नहीं, मेरे लिए तो आप ही राजा हैं !"

"बस, कहने भर को ही ऐसा कहती हो । लेकिन जब कथानायिका बनकर मंच पर उत्तरती हो तो और किसी राजा की रानी बन जाती हो।"

"देखिए, अभी भी आप बाज नहीं आये। इसी डर से मैं आपसे बार-बार विनती करती रहती हूँ कि मंच पर मुझे किसी के साथ नाटक खेलते हुए. या घनिष्ठता बढ़ाते हुए देखकर मुझपर नाराज न हो जाइए । फिर वही पुरानी चक्की आप बार-बार पीस रहे हैं। इससे ज्यादा मैं क्या कर सकती हूँ ! सच मानिए, मंच पर भी मैं आप ही को कथानायक का पार्ट अदा करते हुए देखना चाहती हूँ। आप कथानायक बनकर मंच पर आ गये तो अच्छे-से-अच्छे कलाकारों का भी कलेजा मुँह को आ जायेगा !"

"बस, बस ! ज्यादा तलुवे न सहलाओ!"

"अब तलुबे सहलाकर साधने योग्य कोई काम बाकी नहीं रह गया !"

"बस, बस! बको मत ! हमें यहाँ किसी दूकान में जाना नहीं है। सारी