रही थीं।
उन दिनों में, जब कभी कथानायक की भूमिका निभानेवाला गोपाल अपना पाट खेल नहीं पाता था, तब मुत्तुकुमरन् वह भूमिका स्वयं करता था। स्त्री के वेश में गोपाल कृत्रिम लज्जा दर्शाते हुए उसके सामने आ खड़ा होता था । उस गोपाल के साथ इस गोपाल की, जिसके आने की राह सारा हाल चुप बैठा तक रहा था, उसका मन काल्पनिक तुलना करने की कोशिश कर रहा था।
उन दिनों वेश में न होने पर भी वह लजाता-सकुचाता ही उसके सामने पेश आता था । यही नहीं, पति-परायणा पत्नी की भाँति आज्ञा पालन में भी कोई कसर नहीं रखता था।
"अगर तुम सचमुच औरत होते तो इस मुत्तुकुमार वाधार ही से शादी कर सकते थे !" नाटक सभा के मालिक नायुडू 'ग्रीन रूम' में आकर कभी-कभी गोपाल की खिल्ली भी उड़ाते थे।
वह स्त्री की भूमिका में सुन्दरियों से सुन्दर दीखता था। बिना देश के साधारण हालत में रहते हुए दोनों के बीच ऐसी ही नोंक-झोंक चलती थी-
"देवी ! क्या आज रात को हम चल-चित्र देखने चलें ?" मुत्तुकुमरन् पूछता।
"नाथ ! जैसी आपकी इच्छा ! "गोपाल उत्तर देता ।
'अरे ! उन सारी बातों को सोचने से अब क्या फ़ायदा? यह तो भूखे आदमी का, किसी पुरानी दावतं की याद करने जैसा हुआ !' अंतर्मन ने मुत्तुकुमरन को टोका ।
किसी अजीब ‘सेंट' की महक पहले ही गोपाल के आने की सूचना दे गयी और बाद में रेशमी कुरता और पाजामा पहने गोपाल आया। उपस्थित सभी लोगों पर उसकी सरसरी नज़र पड़ी। युवतियों ने लंजाते हुए और मुस्कराते हुए हाथ जोड़े। युवकों ने प्रसन्नवदन होकर हाथ जोड़े । केबल मुत्तुकुमरन ही ऐसा था, जो गंभीर मुद्रा में पैर पर पैर धरे बैठा रहा। गोपाल के हाथ जोड़ने के पहले, वह उठने या हाथ जोड़ने को तैयार नहीं था। गोपाल की नजर उस पर पड़ी तो उसका चेहरा आश्चर्य से खिल उठा।
"कौन, मुत्तुकुमार वाधार ? अरे, यह क्या ? बिना किसी सूचना के आकर तुमने तो आश्चर्य में डाल दिया ?"
मुत्तुकुमरन की बाँ, खिल गयीं । उसे इस बात की खुशी हुई कि गोपाल के व्यवहार में कहीं कोई फ़र्क नहीं है।
"अच्छी तरह तो हो, गोपाल ? सूरत-शकल बदल गयी! मोटे भी हो गये हो ! अब तुम स्त्री की भूमिका करोंगे तो औरत-जात को बड़ी फजीहत होगी।"
"धाते न आते आपने ताना मारना शुरू कर दिया !" "अच्छा तो फिर क्या कहूँ, अभिनेता सम्राट ?".