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'यह गली विकाऊ नहीं' मद्रास के व्यावसायिक रंग जगत् और फिल्मोद्योग में कला के नाम पर की जाने वाली झूठी साधना और ऐसे तथाकथित कलाकारों के खोखले मूल्यों का पर्दाफ़ाश करती है।

इस अभियान में पारम्परिक रंग कला का समर्पित और स्वाभिमानी युवा कलाकार मुत्तुकुमरन् सबसे आगे है और वह ऐसे सारे प्रलोभनों को ठुकराकर, कला की तमाम शर्तों को सामाजिकता, मानवता और नैतिकता की कसौटी पर कसकर ही नया समाज गढ़ना चाहता है। समाज के वर्तमान घिनौने स्वरूप के लिए ज़िम्मेदार लोगों से उसकी लड़ाई शुरू होती है। सिने जगत् के एक सुप्रसिद्ध 'स्टार' गोपाल के मुक़ाबिले कला-सृजन और रंग प्रस्तुति के हर क्षेत्र में, प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद वह अडिग खड़ा रहता है। मुत्तुकुमरन् समाज सेवा और कला-साधना के नाम पर कला को गन्दी गलियों में बेचने वालों से जमकर लोहा लेता है। अनन्य समर्पण और सर्जक की निष्ठा के अतिरिक्त उसके पास कुछ भी नहीं। यही शक्ति उसे समाज और कला के व्यापक और वृहत्तर संदर्भो तथा मूल्यों से जोड़ती है।

चरम उद्योग के रूप में स्थापित फ़िल्म जगत् के फ़िल्मकारों की जगमगाती दुनिया और चमचमाती राहों और कारों की गड्डमड्ड में सच्चे कलाकार भी भटक गए हैं। ऊंचे विचारवान और प्रौढ़ कला साधकों की अनुपस्थिति में सारे रंग जगत् में ऐसी सौदेबाज़ी और मक्कारी भरी लूट चल रही है कि जी घुटता है। यहाँ सब कुछ सिक्कों से खरीदा जा रहा है। कला के आधारभूत मूल्यों की चर्चा करते हुए यह आशंका व्यर्थ नहीं है कि समाज में सच्चे कला साधकों के हितों की रक्षा नहीं हो पा रही है।

मूलतः तमिल में लिखित इस उपन्यास की वृहत पृष्ठभूमि में मद्रास महानगर ही नहीं, सूदूर दक्षिण पूर्वी प्रायद्वीप के देशों―सिंगापुर, मलेशिया एवं अन्यान्य द्वीप-पुंज का सौंदर्य भी बड़ी प्रामाणिकता से चित्रित है।

साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत एवं चर्चित कथा-कृति 'समुदाय वीथि' का श्री रा. वीलिनाथन द्वारा सर्वथा प्रामाणिक और रोचक अनुवाद।

बीस रुपये
 
आवरण : रणजीत साहा