गोपाल ड्राइवर को
आवाज़ में कहो तो मैं मान जाऊँगा।"
गोपाल ने बोलने का उपक्रम किया । लेकिन कंठ ने साथ नहीं दिया तो बीच ही में रुक गया।
"अरे गोपाल !तुम्हारी तो आवाज मुटिया गयी।"
"आवाज ही क्यों, मैं भी तो मोटा हो गया हूँ"~-कहते हुए बुलाने बाहर गया। उसका पीछा करते हुए मुत्तुकुमरन् बोला, "कमरे को अच्छी तरह से देखभाल कर मेरी सारी सम्पत्ति ले आने को कहना ! निघंटु, छंद-शास्त्र आदि वहीं पड़े हैं। कुछ छूट न पाये !"
"चिंता छोड़ो, यार ! सारी चीजें सही सलामत आ जाएँगी !"
"लॉज का भाड़ा भी तो देना है।"
"क्या तुम्हीं को देना है ? मैं चुका दूंगा तो क्या हर्ज है ?"
मुत्तुकुमरन् ने कोई उत्तर नहीं दिया । गोपाल का ड्राइवर छोटी कार लेकर ए@बूर गया। उसे, भेजकर गोपाल लौटा और मुत्तुकुमरन् से बड़े प्यार से बोला, "बहुत दिनों के बाद आये हो । हमें आज साथ-साथ डिनर खाना चाहिये। बोलो, रात को क्या-क्या बनाने को कहूँ ? तकल्लुफ़ मत करो!"
"दाल की चटनी, मेंथी का सांबार, आम का अचार..."
"छि: ! लगता है कि अगले जन्म में भी तुम वायस् कंपनी की उस चालू 'मेनु' को नहीं भूलोगे । नायुडु हमें ऐसा परहेज़ी खाना खिलाता रहा कि कहीं मनुष्य के स्वाभाविक गुण–प्रेम, शोक, वीरता आदि हममें उत्पन्न न हो जायें।"
"वह खाना खाने पर ही तो तुम नायुडु के खिलाफ आवाज उठा नहीं पाये कि हमें अच्छा खाना खिलाओ।"
"अच्छा, तो इसीलिए उसने हमें ऐसा खाना खिलाया था!".
"तो फिर किसलिए? उसने इस बात का बड़ा ख्याल रखा कि उसका खाना खाकर उसके विरुद्ध झंडा उठाने की ताकत हममें न आ जाए. !"
"जो भी हो, उसका खाना खाकर ही तो हम जीते रहे। एक या दो दिन नहीं; बारह सालों से भी अधिक ! दाल की चटनी, मेंथी का सांबार, आम का अचार"
उस तरह वहाँ बारह साल बिताने पर ही तो हम आज यहाँ इस स्थिति तक "सो तो ठीक है । मैं अभी उसे भूला नहीं हूँ ! अच्छी तरह याद है।"
गोपाल के मुंह से यह सुनते हुए मुत्तुकुमरन् ने उसके चेहरे का भाव पढ़ा। मुत्तकुमरन् ने यह जानना चाहा कि उसकी आँखों में कैसी चमक झिलमिला रही है। कृतज्ञता और पुरानी स्मृतियों पर ही बात कितनी देर चल सकती है ? बात का सिलसिला आगे बढ़ाने के लिए कोई विशेष विषय न रह जाने के कारण दोनों के