बीच थोड़ी देर के लिए मौन छाया रहा।
उस मौन के बीच गोपाल उठकर अंदर गया और रसोई के लिए 'मेनु' बताकर आया।
"हॉल' के पास के कमरे में किसी ने रेडियो लगाया। 'मधुर गीत' कार्यक्रम के प्रारंभ के पहले यह सूचना प्रसारित हुई कि यह आकाशवाणी केंद्र के कलाकारों की प्रस्तुति है, मानो वे अनादि अनाम तत्व के अभिन्न अंग हैं। जिनका कोई अपना अस्तित्व नहीं है।
"जानते हो, यार? हमारे बायस् कंपनी में 'कायात कातकम् (उन दिनों के नाटक का प्रसिद्ध गीत) गाकर जो कृष्णप्प भागवतर वाहवाही लूट रहे थे, वे अब आकाशवाणी केंद्र के कलाकार हो गये हैं।"
लगता है कि आकाशवाणी उन कलाकारों के लिए अब, 'कष्ट निवारण केंद्र हो गयी है, जो कि किसी ज़माने में रियासतों, मठालयों और नाटक कंपनियों के आश्रय पर जीते थे।"
"मैं भी एक नाटक कंपनी शुरू करनेवाला हूँ। मुझ पर निर्भर रहनेवालों को खाना-कपड़ा देने के लिए कुछ-न-कुछ करना चाहिए न?"
"अब भी जो 'इन्टरव्यू' हुई थी, उसी के लिए न?"
"हाँ, इस ऐन मौके पर 'उस्ताद' का मद्रास आना बड़े भाग्य की बात है, मानो भगवान प्रसन्न होकर स्वयं भक्त के यहाँ पधारे हों!"
"सो तो ठीक है। लेकिन नाटक कंपनी का नाम क्या रख रहे हो?" "तुम्हीं कोई अच्छा-सा नाम सुझाओ न !"
"क्यों 'ऐया' को याने द्राविड़ कळकम् के संस्थापक पेरियार ई० के० रामस्वामी नायकर को बुलाकर नामकरण नहीं करते?"
"हाय ! वह तो हमारे बस की बात नहीं । बच्चे के नामकरण के लिए भी उन्होंने अपनी फ़ीस बढ़ा दी है।"
"भगवान का नाम आ सकता है न?"
“जहाँ तक हो सके, विवेक (पहुत्तरितु) की कसौटी पर खरा उतरे तो अच्छा रहे।"
"क्यों ? मद्रास में उसी 'लेबल' पर तुम्हारी ज़िन्दगी चलती है क्या ?"
"मज़ाक छोड़ो, यार !"
‘पहुत्तरितु चेम्मल' की उपाधि जो दी है. !"
"यह बात छोड़ो, यार ! कोई अच्छा-सा नाम ढूंढो ।"
"गोपाल नाटक मंडली' नाम रख दो। आज के ज़माने में ईश-वन्दना नहीं चलती । क्योंकि हर कोई अपने को ही देवता मानने लग गया है । आईने में अपनी ही सूरत को हाथ जोड़ता है।"