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यह गली बिकाऊ नहीं/19
 

कार हैं। मुझे तो यहां कोई जानता तक नहीं । मेरे नाम से कुछ फ़ायदा या प्रचार नहीं होगा। ऐसी हालत में मुझसे लिखवाना चाहते हो?" -गोपाल के मन की बात ताड़ने के लिए मुत्तुकुमरन् ने पूछा।

"वह जिम्मा मुझ पर छोड़ दो। तुम चाहे जो भी लिखो-नाम-धाम दिलाना मेरा काम है !"-गोपाल ने कहा ।

"तो...? इसका भी कोई मतलब है ?" मुत्तुकुमरन ने सन्देह के साथ पूछा।



तीन
 

"बस, तुम लिखो उस्ताद ! बाकी सब कुछ मैं देख लूँगा । 'अभिनेता सम्राट गोपाल द्वारा अभिनीत नवरस नाटक' एक लाइन का यह विज्ञापन काफ़ी है: 'हाउस फुल' हो जायेगा । सिनेमा में जो नाम कमाया है, नाटक में उसी का इस्तेमाल करना चाहिए । यही आजकल की 'टेकनिक' है ।

"याने कोई ऐरा-गौरा, नत्थू-खैरा भी लिखे तो भी तुम्हारे नाम से नाटक चमक उठेगा।" तुम यही कहना चाहते हो न?

"और क्या?"

"तो फिर मैं नहीं लिखूगा !"

मुत्तुकुमरन् की आवाज में सरूती थी। उसके चेहरे से हैंसी गायब हो गयी। "क्यों, क्या बात है ?"

"तुम कहते हो कि हद दर्जे की चीज्ञ को भी अपने 'लेबल' पर अच्छे दामों बेच सकते हो और मेरा कहना है कि मैं अपनी अच्छी चीज़ को भी 'सस्ते लेबल' पर नहीं बेचूंगा ।"

यह सुनकर गोपाल भौंचक रह गया। मानो मुँह पर जोर का तमांचा पड़ा हो । यही बात अगर किसी दूसरे ने कही होती तो उसके गाल पर थप्पड़ लगाकर वह 'गेट आउट' चिल्लाया होता । लेकिन मुत्तुकुमरन् के सामने वह आज्ञाकारिणी पत्नी की भांति दब गया। थोड़ी देर तक वह तिलमिलाता रहा कि दोस्त को क्या जवाब दे ! न तो वह गुस्सा उतार सका और न कोई चिकनी-चुपड़ी बात ही कर पाया। उसके भाग्य से मुत्तुकुमरन् ही होंठों पर मुस्कान भरते हुए कहने लगा, "फ़िक्र न करो, गोपाल ! मैंने तुम्हारे अहंकार की थाह लेने के लिए ही ऐसी बातें की। मैं तुम्हारे लिए नाटक लिखूगा । लेकिन वह तुम्हारे अभिनय से बढ़कर मेरी लेखनी का ही नाम रोशन करेगा।"

"उससे क्या? तुम्हारी बड़ाई में मेरा भी तो हिस्सा होगा!"