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20/यह गली बिकाऊ नहीं
 


"पहला नाटक-सामाजिक हो या ऐतिहासिक ?" मूत्तु ने बात बदली।

"ऐतिहासिक ही होगा। राजेन्द्र चोलन या सुन्दर पांडियन में कोई भी हो । पर हां, बीच-बीच में ऐसे चुटीले संवाद जरूर हों, जिन्हें सुनकर दर्शक तालियां पीटें । नाटक का राजा चाहे जो भी हो, उसके मुंह से कभी-कभी ऐसे संवाद बुलबाना चाहिए कि हमारे महाराज, कामराज, नारियों के मन मोहनेवाले रामचंद्रन, दाताओं के दाता करुणानिधि, युवकों के युवक पेरियार, भाइयों के भाई अपणा•••"

"वह नहीं होगा।"

"क्यों ? क्यों नहीं होगा?"

"राजराजचोलन के जमाने में तो ये सब नहीं थे। इसलिए । ..." "मैंने सोचा कि 'मास अपील' होगा !"

"मास अपील' के नाम पर ऊल-जुलूल लिखना मुझसे नहीं होगा।"

"तो क्या लिखोगे? कैसे लिखोगे?"

"मैं नाटक को नाटक की तरह ही लिलूँगा, बस !"

"वह लोकप्रिय कैसे होगा?"

"नाटक की सफलता नाटक-लेखन और मंचन पर निर्भर है न कि बेहूदे संवादों पर !"

"जैसी आपकी इच्छा ! तुम ठहरे उस्ताद । इसलिए मेरी नहीं सुनोगे !"

"किस पात्र की कौन भूमिका निभायेगा ? कितने सीन होंगे? कितने गाने होंगे -इन सबका जिम्मा मुझपर छोड़ दो। नाटक सफल नहीं हुआ तो मेरा नाम मुत्तुकुमरन नहीं !"

"ठीक है “अब चलो, खाने को चलें।"

भोजन के बाद भी दोनों थोड़ी देर तक बातें करते रहे उसके बाद गोपाल ने अपनी अलमारी खोलकर, उसमें रखी रंग-बिरंगी बोतलों में से दो बोतलें और गिलास निकाल ली।

"इसकी आदत पड़ गई उस्ताद ?"

"नाटककारों और संगीतकारों के सामने यह सवाल शोभा ही नहीं देता।"

"आओ, इधर बैठो” कहते हुए भोपाल ने मेज पर बोतल, गिलास और 'ओपनर' रखे । उसके बाद उनकी बातों की दिशा बदली। शाम की 'इन्टरव्यू में आयी हुई लड़कियों पर वे खुलकर बड़ी स्वतंत्रता से विचार-विमर्श करने लगे। उधर बोतलें खाली होती जा रही थी और इधर शालीनता भी रीतती चली जा रही थी। 'तनिपाडल तिर१' जैसी पुरानी पुस्तकों से कुछ अश्लील कविताएँ सुनाकर मुत्तुकुमरन् भी श्लेष के सहारे उनको भद्दी व्याख्या करने लग गया। समय बीतते पता न चला।