द्वार पर हाथ में एक लिफ़ाफ़ा लिये छोकरा नायर खड़ा था ।
"क्या है, इधर लाओ!" मुत्तुकुमरन् के कहने पर वह अंदर आया और लिफ़ाफ़ा देकर चला गया।
लिफ़ाफ़ा भारी और बंद था । ऊपर मुत्तुकुमरन् का नाम लिखा था । मुत्तुकुमरन ने बड़ी फुर्ती से उसे खोला तो उसमें से दस रुपये के नये-नये नोटों के साथ काग़ज़ का एक छोटा-सा पुर्जा भी निकला।
मुत्तुकुमरन ने पढ़ने के लिए पुर्जा निकाला तो उसमें दो ही चार पंक्तियाँ लिखी हुई थीं। नीचे गोपाल के हस्ताक्षर थे। मुत्तुकुमरन ने एक बार, दो बार नहीं, कई वार उसे पढ़ा । उसके मन में एक साथ कई विचार आये। मुत्तुकुमरन ने इस बात का पता लगाने का प्रयत्न किया कि गोपाल उसे अपना घनिष्ठ मित्र मानकर प्यार से पेश आता है या जीविका की खोज में शहर की शरण लेने वाले व्यक्ति के साथ नौकर-मालिक का-सा व्यवहार करता है ? मुत्तुकुमरन्' ने पहले यह समझा कि पैसे के साथ आये हुए उस पत्र के सहारे गोपाल का मन आँक लेगा। पर यह उतना आसान नहीं था। सोचने-विचारने पर उसे ऐसा ही लग रहा था कि पत्र बड़े स्नेह और प्यार के साथ ही लिखा हुआ है।
'प्रिय मुत्तुकुमरन्
बुरा न मानना। साथ के रुपयों को अपनी जेब-खर्च के लिए रखता । आवश्य- कता पड़ने पर, मैं शहर में रहूँ या न रहूँ, खर्च के लिए पैसों की जरूरत पड़े तो इस नये शहर में तुम किससे मांगोगे और कैसे मांगोगे ? तुम्हें तकलीफ़ न हो—इसी सद्भावना से इसे मैं तुम्हारे पास भेज रहा हूँ !"
इतना लिखकर गोपाल ने अपना दस्तखत भी किया था।
उस पुर्जे को पढ़ने और उत्त रुपयों को देखने पर मुत्तुकुमरन् असमंजस में पड़ गया कि अपने मित्र के इस कृत्य पर गुस्सा जताए या स्नेह ? अपनी माली हालत जताने के लिए उसने इस तरह पैसा भेजा है. एक ओर यह विचार उठकर उसका गुस्साबढ़ाता तो दूसरी ओर दूसरा विचार हावी हो जाता नहीं । बेचारा तुम्हारा इतना ख्याल रखता है ताकि पैसे की तंगी से तुम जरा-सी भी तकलीफ़ में न पड़ जाओ।
'ठहरले को जगह, खाने को भाजन और लिखने की सुविधा--इन सारी