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यह गली बिकाऊ नहीं/29
 


"इस शहर में यह रिवाज-सा है । अग्निम प्रचार है और क्या ? गाली भी दो तो भी नाश्ता-कॉफ़ी और चाय-पान के साथ लोग सुन लेंगे !"

"धीरे-धीरे मुझे मद्रास के जीवन के लिए तैयार करना चाहते हो ! है न ?"

"हाँ, किसी न किसी दिन तैयार तो होना ही है !"

"यह सब तो एक नाटक लगता है।"

"हाँ, नाटक ही तो है !"

"कौन-कौन आएँगे?"

"सिनेमा के संवाददाता, मशहूर कथाकार, संवाद-लेखक, निर्देशक, हमारी नाटक मंडली के लिए चुने गये लोग और अभिनेता तथा अभिनेत्रियों में से भी कुछेक आएँगे !"

"मुझसे भी कुछ पूछेगे ? क्या पूछेगे ?"

"क्या पूछेगे? यही कि नाटक का कथानक क्या है, कब तैयार होगा और . कैसे तैयार होगा ? कह देना कि यह तमिळ प्रदेश के महत्त्वपूर्ण स्वर्णिम युग को चित्रित करनेवाला महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक नाटक होगा । ऐसा नाटक तमिळ प्रदेश में ही नहीं, समूचे भारत में भी तैयार नहीं हुआ होगा !"

"सवाल और सवाल का जवाब तुम्हीं ने मुझे सिखा दिया ! है न बात सच्ची ?"

"हाँ, तुम जो भी जवाब दो, महत्त्वपूर्ण शब्द जरूर जोड़ देना, बस !"

"अच्छा, तो यह कहो कि महत्त्वपूर्ण गोपाल नाटक मंडली का महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक नाटक 'महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रस्तुत होगा।"

"दिल्लगी छोड़ो ! मैं सीरियसली कह रहा हूँ।

'यहाँ तो दोनों में कोई फ़र्क मालूम नहीं होता। पता ही नहीं लग पाता कि कौन-सी बात गम्भीर है और हल्ली-फुल्की बातें भी कैसी गम्भीरता से कही जाती है।"

"अच्छा, छोड़ो उन बातों को ! तुम तैयार रहो । मैं तीन बजे आ जाता हूँ !

माधवी को भी जरा जल्दी आने के लिए फ़ोन किया है।" गोपाल ने बात पूरी की।

मुत्तुकुमरन को गोपाल पर आश्चर्य हो रहा था-- मद्रास आने पर गोपाल ने जीवन को कितनी तेजी से पढ़ा है ! ऐसी दुनिया-

दारी उसने कब सीखी और कहाँ से सीखी? इसने समयोचित ज्ञान किससे सीखा और कैसे सीखा ? समय के अनुसार सारा प्रबन्ध करने की राजनैतिक चाणक्य- वृत्ति को कला-जीवन में भी उतारना कोई ऐसा-वैसा काम नहीं है ! गोपाल इसमें सच ही बड़ा निष्णात है !

सबेरे नाटक लिखने को कहना और शाम को पत्रकारों को बुलाकर विज्ञापन के लिए रास्ता निकालना, उसे लगा कि शहरी जीवन में कामयाबी हासिल करने के लिए यह सामर्थ्य और फुर्ती ज़रूरी है। गोपाल की कार्य-चातुरी देखकर उसने