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34 / यह गली बिकाऊ नहीं
 

था. जो । मनुष्य को अपनी कैद में रखे ! पर गोपाल तो खुश नजर आ रहा था ।

मुन्नुकुम रन् ने गुस्से में भरकर पूछा, "यह कीर्ति किस काम की, जो मनुष्य को स्वेच्छा से चलने न दे ?"

गोपाल के उत्तर देने के पहले कार बँगले' पर पहुँच गयी। तीनों कार से उतरे। भोजन के उपरांत मुत्तुकुमरन् अपने 'आउट हाउस' की ओर बढ़ा।

"इन्हें पहुँचाकर आती हूँ !"-माधवी गोपाल से अनुमति लेकर मुत्तुकुमरन् के साथ चली । उस ठंडी-ठंडी रात में माधवी के साथ 'आउट हाउस' चलते हुए मुनुकुमरन् का मन उत्साह से भर गया । उसकी चूड़ियों की झनकार उसके दिल में गूंज उठी । उसको मुस्कान और खिलखिलाहट उसके हृदय को गुदगुदाने लगी। ठंडे बगीचे में रात के द्वितीय पहर में 'रात रानी' की एक लता सफ़ेद फूलों से ऐसी लदी थी, जैसे नीले आकाश में तारे बिखरे हों। उनकी भीनी-भीनी खुशबू और सर्द रात की नुनक में उसका हृदय अनुराग भरा गीत गाने लगा।



पाँच
 

चलते-चलते मुत्तुकुमरन् के मन में यह इच्छा लहर मार रही थी कि माधवी. से वहुत कुछ बोले। 'आउट हाउस' की सीढ़ियाँ चढ़कर कमरे में आते ही माधवी ठिठकी। उसकी मुलायम देह अगले ही क्षण मुत्तुकुमरन् के आलिंगन में थी।

"छोड़िये मुझे ! मैं तो आपसे विदा लेने आयी थी!"

"विदा इस तरह भी ली जा सकती है न ?"

उसने उसकी पकड़ से धीमे से अपने को छुड़ा लिया। लेकिन वह फौरन चल देने की जल्दी में नहीं थी । थोड़ी देर बाद वह जाने को उठ खड़ी हुई-

"तुम्हारा जाने का मन नहीं और मेरा छोड़ने का नहीं । इधर बैठो न !"

"नहीं-नहीं, साहब से कह आयी हूँ कि एक मिनट में आ जाऊँगी। शायद शक करें। मुझे जल्दी घर जाना भी है !"

मुत्तुकुमरन् ने अब चूड़ियों वाले उसके गुलाबी हाथ थाम लिये, जो मथे हुए मक्खन-से मुलायम और शीतल थे।

"तुम्हें छोड़ने का मन नहीं होता, माधवी !"

"मेरा भी नहीं होता। लेकिन..." मुत्तुकुमरन् के कानों में उसकी फुसफुसाहट ऐसी पड़ी, जिसके आगे दैवी संगीत भी मात था।

माधवी अनिच्छापूर्वक विदा लेकर चल पड़ी। सर्द रात और मुत्तुकुमरन्