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36/यह गली बिकाऊ नहीं
 

"तो वहीं भेज दूं ?"

"न"न, मुझे छोड़ो..."

"जैसी तुम्हारी मर्जी"-~कहकर गोपाल ने फोन रख दिया। मुत्तुकुमरन् के मन में तो माधवी समायी हुई थी और वह कहीं गहरा नशा चढ़ा- कर लिखवा रही थी। उसकी सांसों में अब भी उसकी देह की सुगंध भरी थी। कनक छड़ी-सी उसकी काया में जी सुकुमारता थी, उसे उसके हाथ अब भी अनुभव कर रहे थे । उससे बढ़कर किसी बनावटी नशे की जरूरत उसे उस समय नहीं पड़ रही थी। उसके हृदय में ही नहीं; शिराओं में भी माधवी ही मदिरा बनकर दौड़ रही थी। वह बड़े यत्न से उसका साज-सिंगार कर, पांडिय राजा के दरबार में नृत्य का आयोजन कराकर स्वयं आनंद में डूबा हुआ था। नृत्य के समय, : पांडिय राज के प्रति नृत्यांगना को जो गाना गाना था, उसका मुखड़ा भी काफ़ी बढ़िया बन आया था।

"मेरे हृदय मंच पर कत नाचते तुम!

तुम्हारे संकेतों पर प्रिय ! नाचती मैं ।"

इस टेक पर मधु मधुर राग चुनकर उसने बहुत सुन्दर गीत रचा था । नृत्य के बोल तो लासानी बने थे। जब वह लेटने को उठा, लब रात के तीन बज रहे थे। आउट हाउस के पास, बगीचे से पारिजात पुष्पों की भीनी-भीनी महक ठंडी हवा में घुली आ रही थी। उस खुशबू को खूब गहरे खींचकर, उसने अंतर में बैठी माधवी की स्मृति को खूब नहलाया और सो गया।

दूसरे दिन सवेरे उसे पता न था कि पौ कब फटी ! उसे बिस्तर छोड़ते हुए नौ बज गये थे। आउट हाउस के बरामदे पर माधवी और गोपाल की-सी आवाज सुनाई दी। शायद माधवी आ गयी है-सोचता हुआ वह गुसलखाने पन्द्रह-बीस मिनट बाद जब वह बाहर आया तो देखा कि छोकरा नायर नाश्ता- कॉफी लिये खड़ा है।

नाश्ते के बाद थर्मस की कॉफ़ी गिलास में उड़ेलकर वह पी ही रहा था कि माधवी यह पूछती हुई आयी, "क्या मुझे कॉफ़ी नहीं मिलेगी ?"

-उसकी प्यार-भरी और आत्मीयतापूर्ण बातें सुनकर मुत्तुकुमरन ने फ्लास्क को उलट कर देखा । उसमें कॉफ़ी नहीं थी। उसके हाथ के गिलास में, उसके पीने के बाद, एक-दो बूंट ही बाकी थी !

"लो, पीओ।" शरारती हँसी हँसते हुए उसके आगे बढ़ाया ।

"मैंने भी तो यही चाहा था!" कहकर उसने उसके हाथ से कॉफ़ी लेकर पी ली।

माधवी की यह सहजता मुत्तकुमरन को बहुत पसंद आयी। साथ ही, उसे इस बात का गर्व भी हो रहा था कि उसने माधवी का मन जीत लिया है।