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40/यह गली बिकाऊ नहीं
 


समुद्र-तट या बाजार की तरफ़ निकला जाये तो अच्छा हो । उसे लगा कि उसके प्रेम में घुलकर नाटक तैयार किया जाए तो यह और बढ़िया बनेगा। पहला दृश्य पूरा कर, दूसरे दृश्य का भी कुछ अंश वह लिख चुका था। उसने सोचा कि मैं रात को बाक़ी लिख दूं तो सबेरे आकर टाइप करने में उसे सुविधा होगी।

तीन बजे के करीब लड़का दोनों के लिए नाश्ता लेकर भाया।

"कहीं जरा बाहर घूमने जाने की इच्छा होती है । क्या तुम भी साथ चलोगी, माधवी?"

"एक शर्त माने तो..."

"कौन-सी शर्त है ? बताओ तो पहले !"

"समुद्र-तट पर जाकर थोड़ी देर सैर करते रहेंगे। लेकिन लौटते हुए रात का खाना आपको मेरे घर में खाना होगा ! यदि बोलें तो अभी माँ को फ़ोन कर दूं?"

"तुम्हारा घर कहाँ है ?"

"लाइड्स रोड पर ! अपना नहीं, किराये का घर है । एक बंगले का आउट हाउस 1 मैं अपनी मां के साथ वहीं रहती हूँ !"

"गोपाल को नहीं बुलाओगी ?"

"वे नहीं आयेंगे !"

"क्यों?"

"मेरा घर बहुत छोटा है ! किसी दूसरे के बंगले का आउट हाउस। इसके अलावा मैं उनकी नाटक-मंडली में मासिक वेतन पानेवाली आर्टिस्ट हूँ। फिर उनकी हैसियत की समस्या भी तो है। उन्हें मालूम हो गया तो शायद आपको भी मना कर दें।"

"उसके लिए किसी दूसरे आदमी पर रोब जमाये तो अच्छा । मैं किसी की बात पर सिर झुकानेवाला आदमी नहीं । इस बोग रोड के नुक्कड़ पर चाय की एक छोटी-सी दुकान है न? वहाँ भी बुलाओ तो भी खुशी से आने को मैं तैयार हैं।"

माधवी का चेहरा कृतज्ञता से खिल उठा।

मैं खाने पर ज़रूर आऊँगा ! मुझे तुम्हारी शर्त मंजूर है । अपनी माँ को फ़ोन कर दो!"

"जरा ठहरिये ! पहले छोकरे तायर से कहकर बाहर जाने के लिए कार तो निकलवा लूं"

"कोई जरूरत नहीं माधवी ! गोपाल को कार में नहीं, टैक्सी या बस में चला जाय।

"ऐसा करेंगे तो वे नाराज हो जाएँगे। हम कार ले जायेंगे तो वे बुरा नहीं मानेंगे। उन्होंने जाते हुए मुझसे कहा था कि कहीं जाना हो तो ड्राइवर से कहकर