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46/यह गली बिकाऊ नहीं
 


नहीं चला कि गोपाल लौटा कि नहीं।

मवेरे उठकर मुत्तुकुमरन् कॉफ़ी पी रहा था कि गोपाल वहाँ आया। "कहो, उस्ताद ! सुना कि कल शाम को बहुत धूम-फिर कर आये ! एलियड्स बीच, फिर दावत ! एकाएक एकदम व्यस्त...।"

गोपाल के बोलने के तरीके और हँसने के ढंग में तनिक व्यंग्य नजर आया तो मुत्तुकुमरन् एक-दो क्षण के लिए बिना कोई उत्तर दिये चुप रहा!

"तुम्हीं से पूछ रहा हूँ! माधवी से घंटों बातें कर सकते हो, पर मेरे साथ बोलने का मन नहीं करता क्या ? जवाब क्यों नहीं देते ?"

इस दूसरे सवाल में मुत्तुकुमरन को भौर भी तीखा व्यंग्य नजर आया। उसके सवाल में यह ध्वनि सुन पड़ी कि बिना कहे और बिना पूछे तुम लोगों को बाहर धूमने जाने की हिम्मत कहाँ से आयी ?

आगे चुप्पी साधना उचित नहीं, इस नतीजे पर पहुंचकर मुत्तुकुमरन् ने किसने कहा तुम्हें ? यों ही जरा बाहर घूम आने का जी किया तो हो आये, कहा, बस!"

बात यहीं पूरी नहीं हुई, वह जारी रही।

"सो तो ठीक है ! तुम्हारे या माधवी के न कहने से मुझे पता नहीं चलता-- यही सोचा था न तुमने?"

"पता चल भी गया तो फिर अब क्या करोगे ? सिर उड़ा दोगे?"

"ऐसा करूं तो मेरे सिर पर बत आयेगी !"

यद्यपि दोनों ऊपर से खेल-तमाशे की बात कर रहे थे, पर दोनों के दिल में कोई चीज़ रड़क रही थी, काँटे की तरह, जिसे दिल की दिल ही में रखकर दोनों नाज-नखरे से काम ले रहे थे।

मुत्तुकुमरन के विचार से गोपाल ने अपणामले मन्ड्रम से रात को लौटने पर या सबेरे उठने पर ड्राइवर से पूछकर यह सब जान लिया होगा। फिर भी गोपाल के मुंह से उसने यह जानने का प्रयत्न नहीं किया कि उसने यह कैसे जाना?

गोपाल ने बात बदलते हुए पूछा, "नाटक किस स्थिति में है और कितने पन्ने लिखे जा चुके हैं !"

बिना कोई उत्तर दिये, मुत्तुकुमरन् ने मेज की ओर इशारा किया, जिस पर उसकी पांडुलिपि और माधवी की टंकिल लिपि रखी हुई थी। गोपाल उठाकर इधर-उधर से पढ़ने लगा। पढ़ते हुए बीच-बीच में वह अपनी राय भी देने लगा।

"लगता है. नाटक के मंचन में काफ़ी खर्च करना पड़ेगा। दरबार आदि के अनेक दृश्य बनाने होंगे। अभी से शुरू करें, तभी ये सब वक्त पर पूरे होंगे। 'कास्टयूम्स्' का खर्च, अलग से होगा।"

मुत्तुकुमरन ने उसकी राय काटने या मानने की कोशिश नहीं की। बस,