"मेरा तो उनसे बहुत दिनों का परिचय है। आप तो अभी नये-नये आये हैं, आप उनके लाख लंगोटिया पार ही क्यों न हों। मेरे साथ उनके बरताव का आप खंडन करने जायेंगे तो न जाने क्या फल निकलेगा ! सो वह ख्याल छोड़ दीजिए !"
मुतुकुमरन् माधवी की इन बातों का आशय समझते हुए इस निर्णय पर पहुँचा कि माधवी के खाना परोसने और जूठे बरतत उाने की बात की तह में जाने से माधवी के जीवन में खलल पड़ा। अत: अपने इन विचारों से उसने अपना हाथ खींच लिया।
इसके अलावा अब वह धीरे-धीरे गोपाल को समझ पा रहा था । मद्रास आने पर पहले दिन की मुलाकत में उसने गोपाल को उदारमना पाया था। पर वह निर्णय अब गलत निकल रहा था। बाहर से देखने पर गोपाल दरियादिल लगता था। पर अन्दर से तो दिल का खोटा, कपटी और घमंडी दीख पड़ रहा था।
मद्रास जैसे बड़े शहरों में रहनेवाले लोगों को बाहर से आनेवाला औसत दर्जे का आदमी प्रथम दर्शन में उदारचेता पाता है। पर देखते-देखते उसकी धारणा मिथ्या हो जाती है। उनके सौहार्द, करुणा और प्रेम के मूल में जो कारण छिपे हैं जब उनका पता लगता है तो अपने अनुमान और निर्णय पर उसे पछताना पड़ता है। गोपाल के बारे में अब मृत्तकुमरन् की यही दशा हो गयी।
यद्यपि शहर के अभिजात समाज की सड़कें सुन्दर और सजी हुई दिखायी दे रही थीं, फिर भी उन सड़कों में, और उन सड़कों पर स्थित घरों में कुशल अवसरवादी, हिंस्र पशु जैसे क्रूर व्यक्ति, असहाय और इन्साफ़ चाहने वाले नेक चलन लोग भी विवेक-हीन दृष्टि और विषम बल लेकर आपस में निरंतर लड़ते- भिड़ते-से उसे नजर आये।
चिन्तातिरिसेझै में अंगप्पन की चित्रशाला से दृश्यवन्ध वगैरह चुनकर लौटने के बाद से, गोपाल से हिलने-मिलने और बातचीत से दूर रहने का एक सुअवसर स्वयं मुत्तुकुमल् के हाथ लगा।
दूसरे ही दिन, किसी फ़िल्म के बाह्य दृश्यांकन के सिलसिले में गोपाल को वायुयान से अपनी मंडली के साथ, कश्मीर के लिए रवाना होना पड़ा । जाते वह मुत्तुकुमरन और माधवी से कह गया कि मुझे लौटने में दोहाते लगेंगे । उसके पहले नाटक पूरा हो जाय और रिहर्सल के लिए तैयार रखा जाए तो अच्छा हो।
अतः मुत्तुकुमरन् समुद्र-तट या कहीं बाहर जाना छोड़कर नाटक का आलेख पूरा करने में पूरी तरह से जुट गया । माधवी भी उसकी पांडुलिपि की टंकित प्रति निकालने में अधिक ध्यान देने लगी । उन दिनों में मुत्तुकुमरन् काफ़ी रात गये जाग- जागकर भी नाटक लिखता रहा । वह रात को जो कुछ लिखता, उसे भी माधवी दिन में हो टाइप करती। अंतः उसका काम दुहरा हो गया । इस तरह दस-बारह दिन न जाने कैसे बीत गये !