के लिए बुलाया और नये आये हुए लोगों की तरह सवाल भी किया ! सब कुछ ढोंग
था, नाटक था.!' माधवी ने तो उसके सामने गोपाल का सारा कच्चा-चिट्ठा खोलकर
रख दिया था । पर गोपाल ने तो यूं तक नहीं की और छुपा भी रहा था, मानो
'इन्टरव्यू के समय ही माधवी को देखा है। माधवी को टाइप करने के लिए भेजते.
हुए भी उसने बात घुमा-फिराकर कही थी कि माधवी ने 'इंटरव्यू में बताया था
कि वह टाइप करना भी जानती है। इसलिए उसीको नाटक टाइप करने को
बुलवा भेजूंगा।
गोपाल ने कभी इस बात का भान होने नहीं दिया कि वह पहले से ही माधवी को जानता है।
मुत्तुकुमरन को विश्वास हो गया कि गोपाल उससे यह सब छुपाता रहा। उसे सैलून से लौटते हुए सुनह के ग्यारह बज चुके थे । माधवी टाइपिंग का काम पूरा कर, शुरू से टाइप किये हुए काग़ज़ों को हाथ में लेकर अशुद्धियाँ सुधारने में लगी हुई थी।
मुत्तुकुमरन् सीधे स्नानागार गया और नहा-धोकर कपड़े बदलकर लौटा। माधवी उसपर दृष्टि फेरकर बोली, "एकाएक आप बड़े दुबले लगने लगे हैं। शायद बाल छोटे करवा लिये हैं !"
"गौर नहीं किया ! बाल बनवाते समय मुझे बड़ी नींद आ गयी ! मैं सो गया !"
"नाटक तो बहुत अच्छा बन पड़ा है ! अभी तक शीर्षक नहीं दिया है । क्या शीर्षक देंगे?"
"सोचता हूँ कि 'प्रेम-एक नर्तकी का' रखू ! तुम्हारा क्या ख़याल है?"
"मेरे ख़याल से भी अच्छा है !".
"न जाने, गोपाल क्या कहेगा?
"वे परसों आ जायेंगे। देखें, वे क्या बताते हैं ?"
"हो सकता है कि वह दूसरा----कोई फड़कता-सा नाम रखना चाहे !"
"तब तक के लिए इस पांडुलिपि और टंकित लिपि में 'प्रेम-एक नर्तकी का' ही लिख रखूगी !
मुत्तुकुमरन् ने हामी भरी । भोजन के बाद दोनों बैठकर बातें कर रहे थे कि मुत्तुकुमरन ने पूछा, "आज तो नाटक लिखना पूरा हो गया है । इस खुशी में हम दोनों कोई सिनेमा देखने क्यों न चलें?"
'मैटिनी शो' के लिए चलें तो मैं साथ आऊँगी-"माधवी ने हामी भरी। मुत्तुकुमरन् मान गया और तुरन्त चल पड़ा।
दोनों एक नयीं तमिळ फिल्म देखने गये । वह एक सामाजिक फ़िल्म थी।
'टाइटिल' में उसे एक बांग्ला कहानी पर आधारित बताया गया था जिसके लिए