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यह गली बिकाऊ नहीं/59
 


क्षमा-याचना भी की गयी थी। पट-कथा, संवाद, गीत और निर्देशन का पूरा भार एक ही व्यक्ति ने अपने पर लिया था। गोपाल की तरह ही प्रसिद्ध एक-दूसरे अभिनेता ने उसकी भूमिका की थी। पुराने जमाने के 'वल्लि-विवाह' नाटक में वेलन् (कुमार कार्तिकेय) व्याध और वृद्ध के भेष में जैसे एक ही व्यक्ति आया करता था, वैसे ही इस सामाजिक चित्र में भी पंजाबी, पठान और मारवाड़ी के भेष में उक्त अभिनेता ने तिहरी भूमिका निभायी थी।

फ़िल्म देखते-देखते मुत्तुकुमरन् ने माधवी से एक सवाल किया, "सभी चित्रों में न जाने क्यों एक ही आदमी अपने को सभी विधाओं में पारंगत दर्शाना चाहता है, जबकि हर विधा में अपने को अधूरा ही साबित करता है बेचारा !"

"तमिळ सिने-जगत का यह अभिशाप है, जो मिटाये नहीं मिटता । यहाँ अचानक कोई 'डाइरेक्टर' अपने चित्र के लिए कहानी लिखने लगेगा । उनका उद्देश्य यह दिखाने का होता है कि उन्हें कहानी लिखना भी आता है। तारीफ़ करनेवाले यह मानकर तारीफ करते हैं कि तारीफ़ करना उनका कर्तव्य है। देखनेवाले इसलिए देखते हैं कि देखना उनका कर्तव्य है। समालोचना करनेवाले इसलिए समालोचना करते हैं कि समालोचना करना या तारीफ़ का पुल बाँधना उनका कर्तव्य है।"

"रुक क्यों गयी? बोलो ! डाइरेक्टर को कहानी लिखते देखकर अभिनेता के मन में यह धुन सवार क्यों नहीं होगी कि हम भी कोई कहानी लिखें ? तो वह कोई कहानी लिख मारेगा ! फिर तारीफ करनेवालों और समालोचना करनेवालों के कर्तव्य जोर मारेंगे तो झख मारकर सब-के-सब मैदान में उतरेंगे।"

"बाद को इनकी. देखादेखी स्टूडियो का 'लाइट ब्वॉय' भी एक दिन लव- • स्टोरी लिखेगा । लोकतन्त्र में तो जिसको जो जी में आये, करने की स्वतन्त्रता है.! उसकी कहानी पर फ़िल्म भी बनेगी। हो सकता है, वह डाइरेक्टर और अभिनेता की लिखी हुई कहानियों से बढ़कर कहीं ज्यादा 'रियल' और 'प्रैक्टिकल भी हो!"

पीछे की सीट पर बैठे किसी परम रसिक महोदय को मुत्तुकुमरन् और माधवी के वार्तालाप से फिल्म देखने में बाधा महसूस हुई तो ने गुस्से में बड़बड़ाने-से लगे। दोनों ने बोलना बन्द कर दिया ।

सामने पर्दे पर नायिका का स्वप्न-दृश्य चल रहा था । चमाचम चमकते सुनहरे वृक्षों पर चांदी के फल लगे थे । नायिका हर पेड़ पर चढ़ती और झूलती। लेकिन किसी पेड़ की शाखा तक नहीं टूटती । भारी-भरकम देह वाली नायिका एक बड़ा लम्बा गाना भी गाती रही। वह इतना लम्बा था कि सभी पेड़ों पर चढ़ने और झूलने के बाद ही कहीं जाकर समाप्त हुआ। 'डंगरी डुंगाले, डुंगरी डंगाले' वाली जो पंक्ति बार-बार आयी, न जाने, वह किस जुबान की थी ! मुत्तुकुमरन् ने समझ न पाने के कारण माधवी से पूछा तो वह मुत्तुकुमरन के कानों