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यह गली बिकाऊ नहीं/69
 
दस
 


माधवी का चेहरा निहारते हुए मुत्तुकुमरन ने कहा, "न जाने क्यों, तुम लोग गोपाल से यों ही डरते हो, मानो वह कोई चक्रवर्ती राजा हो !"

"शायद आप यह भूल गये कि समाज की ऊंची     चोटियों पर धनी-मानी, नामी-गिरामी व्यक्ति ही राजे-महाराजों की तरह अव भी बैठे हैं !"

"कहीं किसी चक्रवर्ती-महाराज की धौंस से डर मरने की मेरी आदत नहीं रही है। मैं खुद अपने को किसी चक्रवर्ती राजा से कम नहीं मानता।"

"शायद इसीलिए मुझे आजकल आप से भी डरना पड़ रहा है।"

“गोपाल से डरने और मुझसे डरने में कोई फ़र्क महसूस करती हो तो मुझे गर्व होगा!" कहकर मुत्तुकुमरन ने उसकी ओर देखा तो उसकी आँखों और अधरों पर मुस्कराहट खेल रही थी।

"आप बड़े 'वो' हैं !"

"लेकिन लगता है कि मुझसे बड़े 'वोओं' से ही तुम डरोगी!"

"प्रेम के बंधन में बंधते हुए डरने और हुकूमत के बंधन में डरने में बड़ा फ़र्क ' होता है !"

उसकी बातों की तह में सच्चे प्यार और लगन की गूंज सुनते हुए मुत्तुकुमरन मन-ही-मन बहुत खुश हुआ।



दूसरे दिन सवेरे से रिहर्सल खूब जोर-शोर से चलने लगा। गोपाल चाहता था कि चाहे जो कुछ भी हो, मंत्री महोदय के दिये हुए 'डेट' पर उनकी अध्यक्षता में नाटक का मंचन हो जाये। नियत दिन के बहुत पहले ही रिहर्सल पूरा कर नाटक को पक्का रूप देने के प्रयत्न होने लगे। पार्श्वगायक-गायिकाओं द्वारा गीतों का गोपाल ने 'प्री-रिकार्ड करवा लिया : फिल्मी जगत के एक संगीत निर्देशक ने गीतों की धुनें बनाकर बड़ा दिलकश अन्दाज़ पैदा किया था ।

नाटक ठीक कितने समय का होगा, इसका ठीक-ठीक पता लगाने के लिए 'फाइनल स्टेज रिहर्सल' का इन्तजाम एक स्थायी नाटक थियेटर में ही किया गया । गोपाल ने उसी दिन 'प्रेस प्रीव्यू' रखने का निश्चय किया।

नाटक के प्रथम मंचन और उसके बाद के प्रदर्शनों में 'हाउस फुल होने के लिए सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रशस्ति मूलक शब्द ही छपें-गोपाल ने इसकी भी पूरी व्यवस्था कर रखी थी।

इसके अलावा एक और योजना भी गोपाल के मन में उभर आयीं । मलेशिया के पिनांग से अब्दुब्ला नाम के एक धनी रसिक मद्रास आये हुए थे। वे वहाँ के प्रसिद्ध