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यह गली बिकाऊ नहीं/75
 

ही आ गये थे।

हर दृश्य में संवाद, अभिनय और गीत-प्रस्तुति के लिए तालियाँ बजती रहीं।

मध्यांतर में पिनांग के व्यापारी अब्दुल्ला ने 'ग्रीन रूम' जाकर गोपाल से कहा-"जनवरी में तमिऴों का त्योहार है। पोंगल के समय आप मलेशिया आ जाइए और एक महीने के लिए विभिन्न स्थानों पर यही नाटक खेलिए। दो लाख रुपये का 'कांट्रेक्ट' है। आने-जाने का खर्च, ठहरने की व्यवस्था—यह सब हमारे जिम्मे है। उम्मीद करूँ कि आप हमारी गुज़ारिश पर ज़रूर आयेंगे?"

यह सुनकर गोपाल फूला न समाया। अपनी इच्छा को पूरा होते हुए देखकर उसका दिल बल्लियों उछलने लगा।

मध्यांतर के बाद नाटक ने नाटकीय मोड़ लिया और उसमें और भी चमकभरी गति आयी। माधवी के नृत्य, अभिनय और गान को सुनकर ऐसी करतल ध्वनि हुई कि सभा भवन हिल उठा।

अंतिम दृश्य के समापन के पूर्व मंत्री महोदय और अब्दुल्ला मंच पर आये। मंत्री के सामने 'माइक' रखी गयी। हार पहनाया गया। इसके बाद वे बोले, "तमिळ समुदाय के स्वर्णिम युग का यह नाटक यह प्रतिपादन करता है कि इसके पहले हमें ऐसा कोई नाटक देखने को नहीं मिला। भविष्य में भी इसकी ओई आशा नहीं कि मिलेगा। 'न भूतो न भविष्यति' की सूक्ति को यह नाटक चरितार्थ करता है। वीर्य, शौर्य और प्रेम से परिप्लावित इस दृश्य-काव्य के प्रणेता का मैं हृदय से अभिनंदन करता हूँ। भूमिका में उतरे पात्रों को साधुवाद देता हूँ। और अंत में, आज के दर्शकों और भविष्य के दर्शकों के भाग्य की सराहना करता हूँ।"

इस संस्तुति-माला पहनाने के साथ ही मंत्री महोदय ने गोपाल को फूल-माला पहनायी। गोपाल को तत्काल मुत्तुकुमरन् का ख़याल हो आया। कहीं मुत्तुकुमरन् बुरा न मान जाए-इस डर से दर्शकों की गैलरी में पहली पंक्ति में सामने बैठे हुए मुत्तुकुमरन् को मंच पर बुलवाया और पिनांग के अब्दुल्ला के हाथ में एक माला देकर उसे पहनाने की प्रार्थना की।

मुत्तुकुमरन् ने भी मंच पर आकर तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अब्दुल्ला के हाथों माला स्वीकार की।

इतने से ही संतोष कर नाटक का अन्तिम दृश्य आरंभ हो गया होता तो अच्छा होता। 'तुम भी दो शब्द बोलो उस्ताद'-कहकर गोपाल ने मुत्तुकुमरन् के आगे माइक बढ़ायी।

मुत्तुकुमरन् उस समय घमंड के नशे से चूर था। उसके भाषण में भी वह नशा खूब उभर आया-

"मुझे अभी-अभी यह माला पहनायी गयी। पता नहीं क्यों, मुझे-हमेशा ही माला पहनाने की बात से नफ़रत-सी होती रही है। क्योंकि माला पहनते हुए माला