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76 / यह गली बिकाऊ नहीं
 

पहनानेवाले के आगे, एक पल के लिए ही सही, सिर झुकाना पड़ता है। मेरा सिर झुकवाकर कोई मेरा आदर-सत्कार करे-इसे मैं कतई पसन्द नहीं करता। मैं सिर तानकर रहना ही पसंद करता हूँ। मेरे गले में माला पहनाने के बहाने साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपने सामने मेरा सिर झुकवाने की हैसियत रखे, यह कैसी विडंबना है! धन्यवाद!"

मुत्तुकुमरन् के भाषण से पिनांग के अब्दुल्ला का मुँह जरा-सा हो गया। गोपाल सकपका गया।

मुत्तकुमरन किसी बात की चिंता किये बिना, सिंह की चाल से मंच से उतरकर अपने आसन की ओर बढ़ा।



ग्यारह


मंच पर मुत्तुकुमरन् का इस तरह पेश आना, गोपाल को कतई पसंद नहीं आया। उसे दिल-ही-दिल में यह डर काटने लगा कि पिनांग के अब्दुल्ला के दिल को चोट पहुँची तो मलेशिया की यात्रा और नाटक के आयोजन में बाधा पड़ेगी। नाटक के अंतिम दृश्य में अभिनय करते हुए भी वह इन विचारों और चिताओं से मुक्त नहीं हो पाया।

नाटक के अंतिम दृश्य को देखकर दर्शक कुछ ऐसे गद्गद हो गये कि परदा गिरने के बहुत देर बाद भी तालियों की गड़गड़ाहट नहीं रुकी। मंत्री महोदय विदा होते हुए गोपाल और मुत्तुकुमरन की प्रशंसा कर गये। अब्दुल्ला भी दाद देता हुए विदा हुए। गोपाल ने दूसरे दिन रात को अपने घर में भोज के लिए उन्हें आमंत्रित किया।

मंच पर पहनायी गयी गुलाब की माला के बिखरने की तरह भीड़ भी वहाँ से धीरे-धीरे छंट गयी।

कार्यक्रम के समाप्त होने पर कितने ही लोग गोपाल की प्रशंसा करने और हाथ मिलाकर विदा होने को आये। खिलते चेहरे से गोपाल जन सबसे विदा लेकर चल पड़ा! कार में घर चलते हुए उसने माधवी और मुत्तुकुमरन् से अपती मनोव्यथा सुनायी--

"दूसरों का दिल दुखाने के लिए बोलना कभी अच्छा नहीं। अब्दुल्ला को हमने यहाँ एक बड़े काम की आशा में बुलवाया था। मुझे डर है कि उनके दिल को चोट पहुँचे तो हमारा काम बिगड़ जायेगा।"