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यह गली बिकाऊ नहीं/77
 

उसकी बातों का किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया । गोपाल ने स्वयं अपनी बात जारी रखी, "मंच पर मर्यादा निभाना या संयम वरतना कोई बुरा काम नहीं है !"

मुत्तुकुमरन् अपना संयम खो बैठा और चुटकी लेते हुए बोला, "जो कमजोर होते हैं उनकी रगो में खून नहीं बहता, भय दौड़ता है।"

गोपाल के गालों पर मानो थप्पड़ पड़ी। माधवी ने यह सोचकर चुप्पी साधी कि दोनों में किसी भी एक का पक्ष लेने पर दूसरे का कोप-भाजन बनना पड़ेगा। कार के बंगले में पहुँचने तक गोपाल के क्रोध का पारा भी कुछ ऐसा चढ़ा हुआ था कि उसका मौन टूटा ही नहीं। मुत्तकुमरन ने उसकी जरा भी परवाह नहीं की।

रात को खाते समय भी कोई किसी से अधिक नहीं बोला । खा चुकने के बाद माधवी घर को चल पड़ी । मुत्तुकुमरन् ने भी आउट हाउस में जाकर बत्ती बुझायो और बिस्तर पर लेट गया। दस मिनट के अंदर टेलिफोन की घंटी बजी । नायर छोकरे ने बताया, "बाबूजी पूछ रहे हैं कि ज़रा यहाँ आ सकेंगे?"

"उनसे कहो कि नींद आ रही है। सवेरे मिलेंगे !" कहकर मुत्तुकुमरन ने टेलिफोन रखा। थोड़ी देर में टेलिफ़ोन की घंटी फिर से बज उठी । उठाया तो माधवी बोली, "न जाने दूसरों को मूली-गाजर समझते हुए मजाक उड़ाने में आपको कौन-सा मजा आता है ? नाहक दूसरों का दिल दुखाने से क्या फायदा?".

"तुम मुझे अकल सिखा रही हो?"

"नहीं-नहीं ! ऐसी बात नहीं। आप अगर वैसा समझें तो मुझे बड़ा अफसोस होगा !"

"हो तो हो ! उससे क्या ?"

"मेरा दिल दुखाने में ही आपको चैन मिलता हो तो खुशी से दुखाइए।"

"बात बढ़ाओ मत । मुझे नींद आ रही है !"

"मैं बोलती रहूँ तो शायद आपको नींद आ जायेगी !"

"हाँ, तुम्हारी बोली मेरे लिए लोरी है ! सबेरे इधर आओ न !"

"अच्छा, आऊँगी!"

मुत्तुकुमरन् ने फोन रख दिया। पहले दिन के स्टेज-रिहर्सल में बड़ी देर हो जाने और अधिक जागरण की वजह से मुत्तुकुमरन् को सचमुच बड़ी नींद आ रही थी। लेटते ही वह ऐसी गहरी नींद सो गया कि सपने भी उसकी नींद में दखल देते हुए डर गये। सवेरे उठते ही उसे गोपाल का ही मुंह देखना पड़ा। गोपाल हँसता हुआ बड़ी आत्मीयता से बात कर रहा था, मानो पिछली रात कुछ हुआ ही न था। बह बता रहा था-

"आज सवेरे उठने के पहले चार-पाँच सभाओं के सचिवों और अधिकारियों ने फोन किया था । एक ही दिन में हमारे नाटक की बड़ी माँग हो गयी है !"

"अच्छा !" मुत्तुकुमरन के मुख से इस एक शब्द को छोड़कर कुछ नहीं निकला।