गोपाल के इस असमंजस को मुत्तुकुमरन् अच्छी तरह देख पा रहा था । गोपाल एक
ओर उसपर गुस्सा उतारने की तैयारी कर रहा था और इस कोशिश में हारकर
दूसरी ओर उसी की शरण में आ रहा था।
"अगले दो हफ्तों में हमें मलेशिया जाना होगा। अपनी नाटक-मंडली के साथ जाकर एक महीना वहाँ नाटक खेलना है तो बहुत-सारा प्रबंध करना पड़ेगा । काम अभी से शुरू करें, तभी पूरा हो सकता है !" गोपाल ने ही बात आगे बढ़ायी।
"हाँ, बुलाने पर जाना ही है !" अव भी मुत्तुकुमरन् के मुख से नपा-तुला उत्तर ही मिला।
सुनकर गोपाल के मन में न जाने क्या हुआ ! बोला, "मैं डर रहा था कि तुम्हारी बातों का अब्दुल्ला बुरा मान गये तो क्या हो ? भला हुआ कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। पर अब ऐसा लगता है कि मेरी बातों से तुम्हारे दिल को चोट पहुँची हैं।
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कुछ बुरा तो नहीं कहा !"
"मैंने तो कल ही कह दिया न कि कमजोर लोगों की रगों में खून नहीं, भय दौड़ता है ।"
"कोई बात नहीं ! तुम मुझे कायर कहो, डरपोक कह लो, मैं मान लेता हूँ।"
"मैंने तुम्हें या और किसी को बुरा नहीं कहा ! दुनिया की रीति की बात ही दुहरायी, बस !"
"छोड़ो, उन बातों को ! तुम्हें भी मलेशिया चलना चाहिए ! माधवी, तुम और मैं-तीनों हवाई जहाज से चलेंगे। बाकी लोग समुद्री जहाज़ से चले जायेंगे। सीन-सेट वगैरह को भी जहाज से भेज देना पड़ेगा।"
"मैं वहाँ जाकर क्या करूँगा? तुम लोग तो अभिनेता हो। तुम लोगों के न जाने से नाटक ही नहीं चलेगा। मेरे जाने से किसे क्या लाभ होगा?" मुत्तुकुमरन् ने पूछा।
"ऐसा न कहो ! तुम्हें भी ज़रूर जाना चाहिए। कल ही पासपोर्ट के लिए. अर्जी दे देने का प्रबंध कर दूंगा। आज रात अब्दुल्ला को अपने यहाँ दावत पर बुलाया है। बात पक्की हो गयी तो यह समझो, सारा काम बन गया !"
"हाँ-हाँ ! किसी तरह काम बन जाये तो ठीक !"
"इस तरह उखड़ी बातें करोगे तो कैसे काम चलेगा ? सबमें तुम भी हो !"
'मुत्तुकुमरन ने देखा कि सहसा गोपाल में सबको अपने साथ कर लेने की भावना बढ़ी है। किसी काम की आशा में इस प्रकार की कृत्रिमता बरतने, दावत देने आदि बातों से मुत्तुकुमरन् को चिढ़ थी।
ऐसी बातों में मुत्तुकुमरन को मनोभावना क्या होगी? गोपाल भी अच्छी तरह यूछा।