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यह गली बिकाऊ नहीं/81
 


नफ़रत का सामना करने का वह साहस नहीं कर सकी ! गोपाल उसे वहीं नहीं छोड़कर बँगले तक ले गया।

गोपाल के आँखें मटकाकर बुलाने और उसके । उसके साथ बंगले तक जाने की बात पर मुत्तुकुमरन् के दिल में कैसे-कैसे विचार आयेंगे? इस विचार ने माधवी को धर दबोचा। गोपाल की बातों पर उसका ध्यान नहीं जमा !

"सुना है, पिनांग के अब्दुल्ला तबीयत के बड़े शौकीन आदमी हैं । उनका तुम्हें खयाल रखना होगा। होटल 'ओशियानिक' से उन्हें बुला लाने का भी काम तुम्हीं को सौंपनेवाला हूँ !"

"........."

"यह क्या ? मैं कहता जा रहा हूँ और तुम अनसुनी करती जा रही हो?"

"नहीं तो ! मैं आपकी बात सुन ही रही हूँ। होटल ओशियानिक से अब्दुल्ला को बुला लाना है और..."

"और क्या ? उनकी खुशी का ख्याल भी रखना । तुम्हें सुरगे की तरह पढ़ाने की ज़रूरत नहीं है। तुम खुद समझदार हो।"

"........."

"दावत में किन-किनको बुलाया है---उनकी लिस्ट सेक्रेटरी के पास है । उसे लेकर देखो और अपनी जुबानी सबको 'रिमाइंड' कर दो तो बड़ा अच्छा रहेगा !"

दुबारा आँखें मटकाकर गोपाल ने उसकी पीठ पर थपकी दी। माघबी ने आज तक किसी मर्द के इस तरह थपकी देने पर शील-संकोच का अनुभव नहीं किया था। पर आज वह लज्जा से गड़-सी गयी । गोपाल के कर-स्पर्श से उसे उबकाई होने लगी। मुत्तुकुमरन् ने उसे इस हद तक बदल दिया था।

गोपाल ने पाया कि पीठ पर थपकी देते हुए या आँखें मटकाकर बातें करते हुए उसमें जो उत्साह भरता था और सिहरन-सी दौड़ती थी, उसका कोई नामो- निशान तक नहीं। उसने पूछा भी, "आज उखड़ी-उखड़ी-सी क्यों हो?"

"नहीं, मैं तो हमेशा की तरह वैसी ही हूँ।" माधवी हँसने का उपक्रम करने लगी।

"अच्छा, मैं स्टूडियो जा रहा हूँ ! मेरी बातों का ख्याल रखना !" कहकर गोपाल चला गया।

माधवी के मन में एक छोटा-मोटा युद्ध ही छिड़ गया । पिनांग के अब्दुल्ला को गोपाल ने रात की दावत के लिए ही बुलाया था। उन्हें लिवा लाने के लिए शाम को सात बजे के करीब जाना काफ़ी था। लेकिन गोपाल के बात करने के ढंग से यह ध्वनि निकल रही थी कि पहले ही जाकर उनसे हँसी-खुशीभरी चुहल करती रहो और उसे लिवा लाओ।

माधवी के मन में, इस लमहों में वे सारी पुरानी स्मृतियाँ उभर आयीं, जब