कभी भी गोपाल ने आँखें मटकाकर, 'एक मिनट इधर आओ' कहकर बुलाया है और
इसी प्रकार का काम सौंपा है। वहाँ जाकर उसने क्या-क्या नहीं किया ! ओह !
उन्हें दुबारा सोचते हुए उसे संकोच हो रहा था और वह शरम से गड़ी जा रही थी । मुत्तुकुमरन् जैसा, कला-गर्व में फूला रहनेवाला गंभीर नायक उसके जीवन में नहीं आया होता तो उसे आज भी ऐसा शील-संकोच नहीं हुआ होता । दुनिया में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जिनके संपर्क में आने पर उसके पहले के जीवन के बेहूदा तरीकों को याद करते हुए संकोच महसूस होता है। याद आये तो चुल्लू भर पानी में मरने को जी करता है । माधवी और मुत्तुकुमरन् का संपर्क ऐसा ही था।
गोपाल की बातों में जो ध्वनि थी, उसके अनुसार तो माधवी को उसी समय होटल जाकर अब्दुल्ला से मिलना होता। शाम को सात बजे तक उसके साथ रहकर लिवा लाना होता । लेकिन माधवी ने उस दिन ऐसा नहीं किया। वह सीधे मुत्तुकुमरन के सामने जा खड़ी हुई । लेकिन उसकी आँखें उसपर अंगार उगलने लगीं । आवाज़ में बिजली कड़क उठी--
"क्या हो आयी ? उसने आँखें मारकर बुलाया था न !"
"न जाने, मैंने क्या पाप किया कि आप भी मुझ पर नाराज होते हैं।"
"उसका इस तरह आँखें मटकाने का तरीका मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है।"
"तो मैं क्या करूँ?"
"क्या करूँ, पूछती हो ? पालतू कुतिया बनकर उसके पीछे-पीछे भागती रहो, इससे बढ़कर और करने को क्या रखा है ?"
"गालियाँ दीजिए, खूब गालियाँ दीजिए ! मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी। मैं सब कुछ सुनने को तैयार हूँ, सहने को तैयार हूँ-कुतिया-चुडैल "मान-मर्यादा ही न हो तो सब कुछ सुना जा सकता है, संहा जा सकता है। कुछ असर नहीं पड़ता।"
"आपके संपर्क में आने पर मैं बहुत कुछ बदल चुकी हूँ। जब आप ही दोष थोपेंगे तो मैं क्या करूँगी भला ! डूब मरूं कहीं ?"
"पहले मेरी बातों का जवाब दो ! उस धूर्त ने तुम्हें बुलाया क्यों ?"
"बात कुछ नहीं ! अब्दुल्ला को दावत के लिए बुला लाना है !"
"जाना किसे है ?"
"और किसे ? मुझी को !"
"तुम क्यों जाओगी? वही जाये ! या फिर वह अपने सेक्रेटरी-वेक्रेटरी को भेजकर बुला ले !"
"जब मुझे बुलाकर कहा है तब ! मैं ना कैसे कह दूँ ?"
"हाँ, नहीं कह सकती ! इसीलिए मैं कल से रट लगा रहा हूँ कि कमजोर की