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84/यह गली बिकाऊ नहीं
 

उसके अधिकारों पर अधिकार जमाने का, उसे अपने इशारों पर नाचने का, या ढीला छोड़कर तमाशा देखने का अधिकार मुझे कहाँ से मिला और कैसे मिला? .. यह सोचते-सोचते वह इस नतीजे पर पहुँचा कि अनन्य प्रेम की कोई डोर दोनों को गठबंधन में बाँध रही है, बल्कि बाँध चुकी है।

शाम को अब्दुल्ला को बुलाने जाने के पहले माधवी ने मुत्तुकुमरन को स्टूडियो हो आने के लिए बुलाया।

"मुझे तो मलेशिया नहीं जाना । फिर फोटो खिंचवाने की क्या जरूरत है ?" मुत्तुकुमरन ने कहा।

"आप नहीं चलेंगे तो मैं भी नहीं जाती!" माधवी ने कहा। "तुम तो नाटक की कथा-नायिका हो । तुम न जाओगी तो नाटक  नहीं चलेगा! इसलिए. तुम्हें जाना ही पड़ेगा!" मुत्तुकुमरल् ने हँसते हुए उसकी बातों का विरोध किया।

'कथानायक ही जब नहीं जा रहा तो कथानायिका के जाने से क्या फायदा?"

"गोपाल तो जा रहा है न?"

"मैं अब गोपाल की बात नहीं करती ! अपने कथानायक की बात करती हूँ।"

"वह कौन है ?"

"समझकर भी नासमझ बननेवालों को कैसे समझाया जाये ?"

माधवी की इस आल्मीयता पर वह फिर न्योछावर हो गया। थोड़ी देर बाद माधवी ने स्टूडियो जाने के लिए बुलाया तो उसने कोई आपत्ति नहीं की। स्टूडियो जाकर पासपोर्ट' के लिए फोटो खींचने के बाद दोनों ने एक साथ मिलकर एक फोटो खिंचवाया। शाम को अब्दुल्ला को लाने के लिए 'ओशियानिक' जाते हुए माधवी अकेली नहीं चली। उसकी मानसिकता से परिचित होने के लिए मुत्तुकुमरन् को भी साथ लेकर कार में रवाना हुई।

इधर इनकी कार फाटक के बाहर हो रही थी और उधर गोपाल की कार बँगले में घुस रही थी। गोपाल को यह समझते देर नहीं लगी कि माधवी अभी अब्दुल्ला को लाने के लिए जा रही है। उसके आदेश के अनुसार अकेली न जाकर मुत्तुकुमरन को भी साथ लिये जा रही है । इससे उसे दुहा. क्रोध चढ़ आया और वह मुंह चिढ़ाकर बोला, "मैंने तो तभी जाने को कहा था, पर तुम अभी जा रही हो !"

"हाँ, इन्हें फ़ोटो-स्टूडियो ले गयी थी। देर हो गयी। अब जाकर निकल पायी।"

"सो तो ठीक है। लेकिन इन्हें क्यों कष्ट दे रही हो? अब्दुल्ला को लाने के लिए सिर्फ तुम्हारा जाना काफी नहीं ?" गोपाल ने मुत्तुकुमरन् को काट देने का विचार किया।