हिचककर खड़ी हो गयी।
मुत्तुकुमरन् सामने एक तिपाई पर बोतल, गिलास, सोडा और ओपनर वगैरह लिये डटा था । लगा कि वह पीने की तैयारी कर रहा है।
द्वार पर ही से माधवी ने हिचकते हुए पूछा, "लगता है आपने बहुत बड़ा काम शुरू कर दिया है। मैं अन्दर आ सकती हूँ कि नहीं ?"
"सबको अपना-अपना काम बड़ा ही लगता है !"
"अन्दर आऊँ?" "विक्ष लेकर जानेवालों को इजाजत लेकर आना पड़ता है। बिना कहे-सुने हर किसी के साथ यहाँ-वहाँ-जहाँ कहीं भी जानेवालों के बारे में कहने को क्या रखा ३ "अभी तक आपने अन्दर बुलाया नहीं !" "बुलाना कोई जरूरी है क्या ?"
"तो मैं जाती हूँ !"
"खुशी से ! वह तो अपनी-अपनी मर्जी है !"
पता नहीं, उसने वहाँ से चले जाने की बात किस हिम्मत से उठा दी। लेकिन एक पग भी बाहर नहीं रख सकी। उसकी नाराजगी और बेपरवाही पर वह तड़प उठी। चेहरा लाल हो गया और आँखें गीली हो गयीं। बह जहाँ-की-तहां खड़ी रही।
मुत्तुकुमरन् पीने के उपक्रम में लगा। अचानक अप्रत्याशित ढंग से वह तेजी से अन्दर गयी और झुककर उसके पाँव पकड़ लिये। मुत्तुकुमरन् ने पैरों में आँखों की नमी महसूस की।
"मानती हूँ कि मैंने उस दिन जो किया, ग़लत किया ! मेहरबानी करके मुझे माफ़ कर दीजिये !"
"किस दिन ? क्या किया ? अरे "अचानक यह नाटक क्यों ?"
"मानती हूँ मैंने आपको साथ चलने को बुलाया था और गोपाल की कार में घर चली गयी थी। मैंने यह ठीक नहीं किया। मैं अपनी विवशता को क्या कहूँ ? सहसा मैं उनसे वैर न ठान सकी और न मुंह मोड़ पायी।"
"मैंने तो उसी दिन कह दिया न ? चाहे जो भी साथी मिलें, उनके साथ तुरन्त चल पड़नेवालों के लिए; वह चाहे जिस किसी के भी साथ जाये, इससे मेरा क्या आता-जाता है ?"
"वैसा मत कहिए। पहले मैं ऐसी रही होऊँगी लेकिन अब मैं वैसी नहीं हूँ। आपसे मिलने और परिचय पाने के बाद मैं आप ही को अपना साथी मानती हूँ !"
"••••••"
"मेरा यह अनुरोध तो मानिए ! मेरे सिसकते-बिलखते आँसुओं पर विश्वास