पत्रिका में छपे उस चित्र से गोपाल का ध्यान बँटाने के प्रयत्न में माधवी लगी रही।
पर मुत्तुकुमरन ने गोपाल की बातों पर ध्यान दिया ही नहीं। उसने एक तरह से
लापरवाही बरती। दोनों के पास आकर गोपाल का उस तरह बातें करना बड़ा
बचकाना लगा। मुत्तुकुमरन और गोपाल दोनों रुष्ट हो जाएँ तो क्या हो? इस
नाजुक स्थिति को टाल देने का माधवी का प्रयत्न उतना सफल नहीं रहा ।
थोड़ी देर की बातों के बाद, गोपाल ने पूछा, "आज रात को अब्दुल्ला यहाँ से जा रहे हैं। मैं उन्हें विदा करने 'एयरपोर्ट' तक जानेवाला हूँ। आप में से कोई चलना चाहेंगे ?"
मुत्तुकुमरन् और माधवी ने एक-दूसरे का मुंह देखा । गोपाल की बातों का किसी ने उत्तर नहीं दिया। उनको हिचकिचाहट देखकर गोपाल, 'अच्छा ! मैं जा रहा हूँ !' कहते हुए उठा । जाते हुए वह पत्रिका ऐसे छोड़ गया, हो!
गोपाल के जाने के बाद मुत्तुकुमरन् ने माधवी की खिल्ली उड़ाते हुए पूछा, "अब्दुल्ला को विदा करले तुम गयी क्यों नहीं ?"
इतने में छोकरा नायर दौड़ता हुआ आया और बोला, "टैक्सी बड़ी देर से 'वेटिंग' में खड़ी है । ड्राइवर चिल्ला रहा है।"
तभी माधवी को यह बात याद आयी कि अरे वह तो टैक्सी में यहाँ आयो थी और वह बड़ी देर से उसके लिए खड़ी है। उसने मुत्तुकुमरन् की ओर मुड़कर ऐसी दृष्टि फेरी, कि मानो पूछती हो कि अब मैं जाऊँ या और थोड़ी देर ठहरूँ ?"
"टेक्सी खड़ी है तो जाओ। कल मिलेंगे !" मुत्तुकुमरन ने कहा।
वह बुझे दिल से वहाँ से चली मानो और ढेर सारी बातें कहने को रह गयी हों । मुत्तुकुमरन भी बगीचे से चलकर आउट हाउस' में गया ।
दूसरे दिन सवेरे गोपाल ने माधवी को फोन किया कि वह अपने लिये कुछ
रेशमी साड़ियाँ खरीद ले। पांडि बाज़ार में एक वातानुकूलित कपड़े की दूकान
में
गोपाल का खाता चलता था । नाटक आदि के लिए जो साड़ियाँ खरीदनी होती
थीं, माधवी वहीं से जाकर लिया करती थी। बिल वहाँ से सीधे गोपाल के पास
पहुँच जाता था।
"दूकान वालों को मैं इत्तिला कर दूंगा कि तुम ग्यारह बजे वहाँ पहुँच रही हो।" गोपाल ने बताया और उसने भी स्वीकार लिया था । अतः जल्दी से नहा-