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युद्ध और अहिंसा


युद्ध और अहिंसा सम्पन्न राष्ट्र एक गरीब और शरीर से निर्वल प्रजा को पराजित कर पाये, तो इसमें भारी हानि है। पराजित राष्ट्र के चन्द इने-गिने व्यक्ति भले अपने आत्म-बल का जौहर बताकर विजेता के भागे सिर झुकाने से इन्कार करें, मगर प्रजा का अधिकांश तो आखिर उसकी शरण लेगा ही और अपनी प्राण रक्षा की खातिर गुलामी की गिदगिढ़ाने की रीति ग्रहण करेगा। ऐसे लोगों में बड़े-बड़े विज्ञानवेत्ता तत्वज्ञ और कलाकार लोग भी पा सकते हैं। प्रतिभा और नैतिक बल तो भिन्न-भिन चीजें हैं। वे एक ही व्यक्ति में अक्सर इकठे नहीं पाये जाते। जो सशक्त है उसे अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए फौज की जरूरत नहीं, वह अपने शरीर की आहुति देकर भी अपनी आत्मा की रक्षा कर लेगा। मगर ऐसे लोग इनेगिने ही हो सकते हैं। हरेक देश में बहुमत सो कमज़ोर निर्बल प्रजा का ही होता है। उन्हें रक्षा की आवश्यकता रहती है। सवाल यह है कि अहिंसा के उपाय से उनकी रक्षा कैसे हो? देश की अहिंसा के उपाय से रखा करने की नीति पर विचार करते हुए हरेक देश-भक्त प्रादमी के सामने यह एक समस्या खड़ी हो जाती है। क्या आप 'हरिजन' द्वारा इसपर कुछ प्रकाश डालेंगे?"

इसमें शक नहीं कि “निर्बल बहुमत" को रक्षा की जरूरत है। अगर सब-की-सब प्रजा सिपाही होती-फिर भले वह शस्त्रधारी हो या अहिंसात्मक-तो इस किस्म की चर्चा का मौका हो न पाता। ऐसा दुर्बल बहुमत हमेशा हर देश में रहता ही है, जिसे दुर्जनों से रक्षा की जरूरत रहती है। इसका पुराना तरीका