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युद्ध और अहिंसा


रक्षा की जाती है। पाशविकता, धोखेबाजी, द्वेष आदि को तो इसमें स्थान ही न होगा। नतीजा यह होगा कि दिन-ब-दिन रक्षक दल का नैतिक वातावरण सुधरेगा। इसके साथ ही, जिसकी रक्षा की जा रही है, उस "निर्बल बहुमत" का भी नैतिक उत्थान होगा। इसमें केवल दर्जे का फर्क हो सकता है, मगर क्रिया में नहीं!

केवल इस तरीके में मुश्किल तब पेश आती है, जब हम अहिंसा के साधन को अमल में लाने की कोशिश करते हैं। हिंसात्मक युद्ध के लिए शस्त्रधारो सिपाही ढूँढने में कोई दिक्कत नहीं पेश होती। मगर अहिंसक सिपाहियों का रक्षा-बल बनाते हुए हमें बड़ी सावधानी से भरती करनी पड़ती है। रुपये या तनख्वाह की लालच से तो ऐसे सिपाही पैदा नहीं किये जा अहिंसक युद्ध के अनुभव के परिणामस्वरूप भविष्य के लिए श्राज मेरी आशा मजबूत बनी है। "दुर्बल बहुमत" की अहिंसाशस्त्र द्वारा रक्षा करने में मुझे काफ़ी कामयाबी मिली है। मगर अहिंसा-जैसे दैवी शस्त्र के अन्दर छुपी हुई प्रचंड शक्ति को खोज निकालने के लिए पचास साल का अर्सा चीज क्या है? इसलिए इस पत्र के लेखक की तरह जो लोग अहिंसा-शस्त्र के प्रयोग में रस लेने लगे हैं, उन्हें चाहिए कि यथा शक्ति और यथावसर इस प्रयोग में शामिल हों। यह प्रयोग अब एक निहायत मुश्किल मगर रोचक मंजिल पर पहुँचा है। इस अपरिचित महासागर पर मैं खुद अपना रास्ता अभी हूँढ रहा हूँ। मुझे कदम-कदम पर