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युद्ध और अहिंसा


निश्चय होता, तो वे चेकोस्लोवाकिया की रक्षा करने या उसके लिए मर मिटने के अपने कर्तव्य का पालन ज़रूर करते। मगर जर्मनी और इटली की संयुक्त हिंसा के सामने वे हिम्मत हार गये। लेकिन जर्मनी और इटली को क्या लाभ हुआ? क्या इससे उन्होंने मानव-जाति की नैतिक सम्पत्ति में कोई वृद्धि की है?

इन पंक्तियों को लिखने में उन बड़ी-बड़ी सत्ताशओं से मेरा कोई वास्ता नहीं है। मैं तो उनकी पाशवी शक्ति से चौंधिया जाता हूँ। चेकोस्लोवाकिया की इस घटना में मेरे और हिन्दुस्तान के लिए एक सबक मौजूद है। अपने दो बलवान साथियों के अलग हो जाने पर चेक लोग और कुछ कर ही नहीं सकते थे। इतने पर भी मैं यह कहने की हिम्मत करता हूँ कि राष्ट्रीय सम्मानरच्ता के लिए अहिंसा के शस्त्र का उपयोग करना अगर उन्हें आता होता; तो जर्मनी और इटली की सारी शक्ति का वे मुकाबला कर सकते थे। उस हालत में इंग्लैंड और फ्रांस को वे ऐसी शान्ति के लिए आरजू-मिन्नत करने की बेइज्ज़ती से बचा सकते थे, जो वस्तुतः शान्ति नहीं है और अपनी सम्मान-रक्षा के लिए वे अपने को लूटनेवालों का खून बहाये बिना मदों की तरह खुद मर जाते। मैं यह नहीं मानता कि ऐसी वीरता, या कहिए कि निग्रह, मानव-स्वभाव से कोई परे की चीज है। मानव-स्वभाव अपने असली स्वरूप में तो तभी आयगा जबकि इस बात को पूरी तरह समझ लिया जायगा कि मानव-रूप अख्त्यार करने के लिए उसे