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युद्ध और अहिंसा


असभ्य या अर्द्ध सभ्य कहे जानेवाले राष्ट्रों के शोषण को छोड़कर अपने जीवनक्रम को सुधारना पड़ेगा। इसका अर्थ हुआ पूर्ण क्रान्ति। पर बड़े-बड़े राष्ट्र साधारण रूप में विजय-पर-विजय प्राप्त करने की अपनी धारणाओं को छोड़कर जिस रास्ते पर चल रहे हैं उससे विपरीत रास्ते पर वे एकदम नहीं चल सकते। लेकिन चमत्कार पहले भी हुए हैं और इस बिल्कुल नीरस जमाने में भी हो सकते हैं। गलती को सुधारने की ईश्वर की शक्ति को भला कौन सीमित कर सकता है! एक बात निश्चित है। शस्त्रास्त्र बढ़ाने की यह उन्मत्त दौड़ अगर जारी रही, तो उसके फलस्वरूप ऐसा जनसंहार होना लाजिमी है जैसा इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। कोई विजयी बाकी रहा तो जो राष्ट्र विजयी होगा उसकी विजय ही जीते-जी उसकी मृत्यु बन जायगी। इस निश्चित विनाश से बचने का सिवा इसके कोई रास्ता नहीं है कि अहिंसात्मक उपाय को उसके समस्त फलितार्थों के साथ साहसपूर्वक स्वीकार कर लिया जाय। प्रजातंत्र और हिंसा का मेल नहीं बैठ सकता। जो राज्य आज नाम के लिए प्रजातन्त्री हैं उन्हें या तो स्पष्ट रूप से तानाशाही का हामी हो जाना चाहिए, या अगर उन्हें सचमुच प्रजातन्त्री बनना है तो उन्हें साहस के साथ अहिं. सक बन जाना चाहिए। यह कहना बिल्कुल वाहियात है कि अहिंसा का पालन केवल व्यक्ति ही कर सकते हैं, और राष्ट्र हर्गिज नहीं, जो व्यक्तियों से ही बने हैं।

'हरिजन-सेवक' : १२ नवम्बर, १९३८