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जर्मन आलोचकों को गांधीजी का जवाब


या समत्व की भावना ही अमली अहिंसा है? और यहदी लोग असहायावस्था और आवश्यकतावश मजबूरी से अहिंसा को ग्रहण करने के बजाय अगर अमली अहिंसा, याने गैर यहूदी जर्मन के प्रति जान-बूझकर बन्धत्व की भावना को अपना लें, तो मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि जर्मनों का दिल पसीज जायगा। इसमें शक नहीं कि संसार की प्रगति में यहूदियों की बहुत बड़ी देन है, लेकिन उनका यह महान कार्य उनकी सबसे बड़ी देन होगी और युद्ध एक अतीत की चीज़ बन जायगा।

यह बात मेरी समझ में ही नहीं आती कि मैंने जो बिलकुल निर्दोष लेख लिखा था उस पर कोई जर्मन क्यों नाराज हो। निस्सन्देह, जर्मन आलोचक भी दुसरों की तरह यह कहकर मेरा मजाक उड़ा सकते थे कि यह तो एक स्वप्नदर्शी का प्रयत्न है, जिसका असफल होना निश्चित है। इसलिए मैं उनके इस रोप का स्वागत ही करता हूँ, हालाँकि मेरे लेख को देखते हुए उनका यह रोप बिलकुल नामुनासिब है।

क्या मेरे लेख का कोई असर हुआ है? क्या लेखक को यह लगा है कि मैंने जो उपाय सुझाया है, वह ऊपर से जैसा हास्यास्पद दीखता है असल में वैसा हास्यास्पद नहीं बल्कि बिल्कुल व्यावहारिक है? काश, कि बदले की भावना के बगैर कष्ट-सहन के सौन्दर्य को हम समझ लें। मैंने यह लेख लिखकर अपनी, अपने आन्दोलन की और जर्मन-भारतीय सम्बन्धों को कोई भलाई नहीं की है, इस कथन में धमकी भरी हुई है। यह कहना अनुचित भी न