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आलोचनाओं का जवाब

कुछ मित्रों ने मेरे पास अखबारों की दो कतरने भेजी हैं, जिनमें यहूदियों से की गई मेरी अपील की आलोचना है। दोनों आलोचकों का कहना है कि यहूदियों के साथ जो अन्याय हो रहा है उसके प्रतिकार के लिए अहिंसा का उपाय सुझाकर मैंने कोई नई बात उनके सामने नहीं रक्खी, क्योंकि पिछले दो हजार बरसों से स्पष्टतया वे अहिंसा का ही तो पालन कर रहे हैं। जहाँतक इन आलोचकों का सम्बन्ध है, मैंने अपना आशय स्पष्ट नहीं किया। पर, जहाँतक मैं जानता हूँ, यहूदियों ने अहिंसा को अपना ध्येय, या मुक्ति की नीति भी बनाकर उसका पालन कभी नहीं किया। निस्सन्देह, उनके ऊपर यह कलंक लगा हुआ है कि उनके पूर्व-पुरुषों ने ईसामसीह को सूली दे दी थी। क्या यह नहीं समझा जाता कि वे 'जैसे के साथ तैसे' की नीति में विश्वास करते हैं? अपने ऊपर अत्याचार करनेवालों के प्रति क्या उनके दिलों में हिंसा का भाव नहीं है? क्या वे यह नहीं चाहते कि उनपर होनेवाले अत्याचार के लिए तथाकथित