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आलोचनाओं का जवाब


लेकिन ऐसा साहस वे ही दिखा सकते हैं जिनका सत्य और अहिंसा अर्थात् प्रेम के देवता में जीता-जागता विश्वास हो।

निस्सन्देह, आलोचक यह दलील दे सकते हैं कि मैंने जिस अहिंसा का चित्रण किया है वह सर्वसाधारण मनुष्यों के लिए सम्भव नहीं है, बल्कि सिर्फ बहुत थोड़े-से, बहुत ऊँचे, पहुँचे हुए मनुष्यों के लिए ही सम्भव है। लेकिन मैंने इस विचार के खिलाफ हमेशा यह कहा है कि उपयुक्त शिक्षण और नेतत्व मिलने पर सर्वसाधारण भी अहिंसा का पालन कर सकते हैं।

फिर भी मैं यह देखता हूँ कि मेरे कहने का यह गलत अर्थ लगाया जा रहा है कि मैंने पीड़ित यहूदियों को अहिंसात्मक प्रतिरोध की सलाह दी है। इसलिए लोकतंत्रात्मक राष्ट्रों को मैं यहूदियों की ओर से हस्तक्षेप न करने की सलाह दूँगा। मुझे इस आशंका का जवाब देने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि मेरे कुछ कहने के कारण बड़े-बड़े राष्ट्र कोई कार्रवाई करने से रुके, निश्चय ही ऐसा कोई खतरा नहीं है। यहूदियों को अमानुषक अत्याचारों से मुक्त करने के लिए जो कुछ वे कर सकते हैं वह तो वे करेंगे ही, क्योंकि ऐसा करने के लिए वे विवश हैं। मेरी अपील का जोर तो इसी बात में है कि शक्तिशाली राष्ट्र प्रभावकारी रूप में यहूदियों की मदद करने में अपने को असहाय समझते हैं। इसलिए मैंने यह उपाय पेश किया है जो, अगर ठीक ढंग से ग्रहण किया जाय तो, मेरी समझ में अचूक है।

मगर इस पर सबसे ज्यादा उचित आक्षेप तो यह है कि जब