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युद्ध और अहिंसा


अहिंसा चाहे कमज़ोरों का शस्त्र हो या बलवानों का, किन्हीं अत्यन्त विशेष परिस्थितियों के अलावा वह सामाजिक के बजाय न्यक्तिगत प्रयोग की ही चीज़ मालूम पड़ती है। मनुष्य अपनी खुद की मुक्ति के लिए प्रयत्न करता रहे; राजनीतिज्ञों का सम्बन्ध तो कारणों, सिद्धान्तों और अल्पसंख्यकों से है। गांधीजी का कहना है कि 'हेर हिटलर को उस साहस के सामने झुकना पड़ेगा जो उसके अपने तूफानी सैनिकों द्वारा प्रदर्शित साहस से निश्चितरूपेण श्रेष्ठ है।' अगर ऐसा होता, तो हम सोचते कि हेर वॉन ओसीट्ज़के जैसे मनुष्य की उन्होंने जरूर तारीफ की होगी। मगर नाजियों के लिए साहस इसी हालत में गुण मालूम पड़ता है कि जब उनके अपने ही समर्थक उससे काम लें; अन्यत्र वह 'मार्क्सवादी-यहूदियों की पृष्ठतापूर्ण उत्तेजना, हो जाता है। गांधीजी ने इस विषय में कारगर रूप में कुछ करने में बड़े-बड़े राष्ट्रों के असमर्थ होने के कारण अपना नुसना पेश किया है-यह ऐसी असमर्थता है जिसके लिए हम सबको अफसोस है और हम सब चाहते हैं कि यह न रहे। यहूदियों को उनकी सहानुभूति से चाहे बड़ा आश्वासन मिले, लेकिन उनकी वृद्धि में इससे ज्यादा मदद मिलने की सम्भावना नहीं है। ईसामसीह का उदाहरण अहिंसा का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है और उनको जिस बुरी तरह मारा गया उससे हमेशा के लिए यह सिद्ध हो गया है कि सांसारिक और भौतिक रूप में यह बड़ी बुरी तरह असफल हो सकती है।"

मैं तो यह नहीं समझता कि पास्टर नीमोलर और दूसरे