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युद्ध और अहिंसा

अगर संसार का शासन करने दिया जाये तो उसकी बिलकुल कोई गुंजाइश ही नहीं है। इसलिए युद्ध पर अन्तःकरण से आपति करनेवाले लोग लोकसत्तात्मक शक्तियों को कमजोर करते हुए विरोधियों की मदद करके अपने ही उद्देश्य को नष्ट कर रहे हैं।

लाजिमी सैनिक भर्तीवाले किसी भी देश में, यहा़ँतक कि खतरे की संभावनावाले प्रेट ब्रिटेन में भी, नौजवानों के लिए इस प्रश्न् का हल होना बहुत जरूरी हैं। लेकिन दक्षिण अफ्रीका मिस्र या ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में, जिन्हें शायद चढ़ाई की सम्भावना का मुकाबला करना पड़े; और हिन्दुस्तान में, जिसमें 'पूर्ण स्वाधीनता' के समय शायद जापान या मुस्लिम देशों के गुट्ट की चढ़ाई की सम्भावना रहे, यह अभी असल में उतना महत्वपूर्ण नहीं है।

ऐसी सम्भावनाओ (बल्कि कहना चाहिए कि हकीकतों) के सामने क्या हरेक तीव्र विवेक-बुद्धि रखनेवाले को (फिर वह चाहे जवान हो या बूढ़ा) क्या इस बात का निश्चय न होना चाहिए कि उसके करने के लिए कौन-सा तरीका सही और व्यावहारिक हैं? यह एक ऐसी समस्या है जिसका किसी-न-किसी रूप में (अगर रोज नहीं तो किसी-न-किसी दिन) हममें से हरेक को खुद सामना करना पड़ेगा। क्या आपके वाचक इन बातों को स्पष्ट करने में सहायक हो सकते हैं? जिन्हें इस बात का निश्चय न हो कि समय आने पर उन्हें इसका क्या जवाब देना चाहिए, वे इसपर विचार करके इसबारे में निश्चय कर सकते