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युद्ध और अहिंसा


दमन को अपनाया है। ऐसी हालत में अपने पूर्वजों ने तथाकथित पिछड़ी हुई जातियों का अपने भौतिक लाभ के लिए शोषण करने में जिस अवैज्ञानिक हिंसा की वृद्धि की थी, मेसर्स हिटलर एण्ड कम्पनी ने उसे वैज्ञानिक रूप दे दिया तो उसमें आश्चर्य की बात क्या हैं? इसलिए अगर यह मान लिया जाये, जैसा कि माना जाता है, कि ये तथाकथित प्रजातंत्र अहिंसा का एक हद तक पालन करने से पिघल जाते हैं तो फासिस्टों और नाजियों के पाषाणहृदयों को पिघलाने के लिए कितनी अहिंसा की जरूरत होगी, यह त्रैराशिक से मालूम किया जा सकता है। इसलिए पहली दलील तो निकम्मी है, और बसमें कुछ तथ्य माना भी जाये तब भी उसे ध्यान से बाहर निकाल देना होगा।

अन्य दो दलीलें व्यावहारिक हैं! शान्तिवादियों को ऐसी कोई बात तो न करनी चाहिए जिससे उनकी सरकारों के कमजोर पड़ने की सम्भावना हो। लेकिन इस भय से उन्हें यह दिखा देने के एकमात्र कारगर अवसर को नहीं गँवा देना चाहिए कि सभी तरह के युद्धों की व्यर्थता में उनका अटूट विश्वास है। अगर उनकी सरकारें पागलपन के साथ युद्ध-विरोधियों को बनाने लगे, वो उन्हें अपनी करनी के फलस्वरूप होनेवाली अशान्ति के परिणामों को सहना ही होगा। प्रजातन्त्रों को चाहिए कि वे व्यक्तिगत रूप से अहिंसा का पालन करने की स्वतन्त्रता का आदर करें। ऐसा करने पर ही संसार के लिए आशा-किरणों का उदय होगा।

'हरिजन-सेवक' : १५ अप्रेल, १९३९