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युद्ध और अहिंसा

 अहिंसा को जो धर्म के रूप में मानते हैं उनकी दृष्टि से उसे सर्वव्यापक होना चाहिए। अहिंसा को धर्म माननेवाले अपनी एक प्रवृत्ति में अहिंसक रहें और दूसरी के विषय में हिंसक, ऐसा कैसे हो सकता हैं? यह तो केवल व्यवहार-नीति मानी जायगी। इसलिए इटली जो युद्ध कर रहा है उसके सम्बन्ध में अहिंसाधर्मी उदासीन नहीं रह सकता। यह होते हुए भी इस विषय में अपनी राय बतलाने और अपने देश को मार्ग दिखाने के लिए आग्रहपूर्ण सूचनाओं के प्रति मुझे इन्कार करना पड़ा है। बहुधा सत्य और अहिंसा के लिए मौनरूपी आत्म-निग्रह धारण करना ही पड़ता है। यदि भारत ने बतौर राष्ट्र के सामाजिक अहिंसा को धर्मरूप में स्वीकार किया होता, तो मैंने अवश्य ही कोई-न-कोई सक्रिय मागे बता दिया होता। यह मैं जानता हूँ कि करोड़ों के हृदय पर मुझे कितना अधिकार प्राप्त हो चुका है पर उसकी बड़ीबड़ी मर्यादाओं को भी मैं ठीक-ठीक समझ सकता हूँ। सर्वव्यापक अहिंसा के मार्ग पर भारत की पचरंगी प्रजा को मार्ग दिखाने की शक्ति ईश्वर ने मुझे प्रदान नही की है। अनादि काल से भारत को अहिंसा-धर्म का उपदेश तो अवश्य मिलता चला आ रहा है, किंतु समस्त भारतवर्ष में सक्रिय अहिंसा पूर्णरूप से किसी काल में अमल में लाई गई थी ऐसा मैंने भारत के इतिहास में नहीं देखा। यह होते हुए भी अनेक कारणों से मेरी ऐसी अचल श्रद्धा है सही कि भारत किसी भी दिन सारे जगत् को अहिंसा का पाठ पढ़ायेगा। ऐसा होने में भले ही कई युग गुजर जाय। पर मेरी