पृष्ठ:Yuddh aur Ahimsa.pdf/१६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५५
अद्वितीय शक्ति

 मनुष्य के रूप में समझ सके और अंग्रेजों को-या किसी को भी-हानि पहुँचाने की कल्पना करते हुए भी लज्जित हों, तो अंग्रेज सिपाहियों, व्यापारियों अथवा अफसरों का भय हम छुड़ा देंगे, और अंग्रेजों में हमारे प्रति आज जो अविश्वास है वह दूर हो जायगा। यदि हम सच्चे अहिंसक हो जाये तो अंग्रेज हमारे मित्र बन जाये। अर्थात्, हम करोड़ों की संख्या में होने से इस दुनिया में बड़ी-से-बड़ी शक्ति के रूप में पहिचाने जायें, और इसीलिए उनके हितचिन्तक के रूप में हम जो सलाह उन्हें दें उसे वे अवश्य ही मानें।

मेरी दलीलें पूरी हो गई। पाठक देख सकेंगे कि ऊपर की दलीलें देकर मैंने उक्त पाँच उपसिद्धांतों का ही जैसे-तैसे समर्थन किया है। सच बात तो यह है कि जिसकी दलील से पूर्ति करनी पड़ती है वह न तो सिद्धांत है न उपसिद्धांत। सिद्धांत को सो स्वयंसिद्ध होना चाहिए। पर दुर्भाग्य से हम मोहजाल में अथवा जड़तारूपी शक्ति में ऐसे फंसे हुए हैं कि अक्सर सूर्यवत् स्पष्ट वस्तुओं को भी हम नहीं देख सकते। इसी से किसी प्राचीन ऋषि ने कहा है कि, "सत्य के ऊपर जो सुनहला आवरण आ गया है, उसे हे प्रभो, तू दूर कर दे।"

यहाँ, मुझे जब मैं विद्यार्थी था तब का एक स्मरण याद आ रहा है। जबतक 'भूमिति' समझने लायक मेरी बुद्धि विकसित नहीं हुई थी तब तक यह बात थी कि अध्यापक तो तख्ती पर आकृतियाँ बनाया करता और मेरा दिमाग इधर-उधर चक्कर लगाया करता