पृष्ठ:Yuddh aur Ahimsa.pdf/१७१

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१६२ युद्ध और अहिंसा उपयोग न रहे। चीनी तब जापानियों से यह कहें-‘अपनी सारी शस्त्र-सामग्री ले आओ । अपनी आधी जन-संख्या हम उसके भेंट करते हैं । पर बाकी के जो बीस करोड़ बचेंगे वे किसी भी बात में तुम्हारे सामने घुटने नहीं टेकेंगे ।’ अगर चीनी यह कर सकें, तो जापान को चीन का बन्दी बनकर रहना पड़े ।

       यह आपत्ति भी उठाई गई है कि यहूदियों के बारे में तो 

अहिंसा की हिमायत ठीक है । कारण कि उनके उदाहरण में तो अत्याचार सहनेवाले और अत्याचारी के बीच में व्यक्तिगत व्यवहार का सम्बन्ध है। लेकिन चीन में तो जापान दूर से गोला- बारी करनेवाली तोपों और हवाई जहाजों से हमला कर रहा है । अन्तरिक्ष में से विध्वंसक विमानारुढ़ शायद ही यह देख और जान पाते हैं कि खुद उन्हें किसने मारा और उन्होंने किनको मारा । ऐसे हवाई जहाजी युद्ध का सामना अहिंसा किस तरह कर सकती है ? जवाब इसका यह है कि हवाई जहाजों से जो संहारक बम बरसाये जाते हैं, उन्हें बरसानेवाले मनुष्य के ही तो हाथ हैं और उन हाथों को जो हुक्म देता है वह भी मानव- हृदय है। फिर इस सारी संहारक बम-वर्षा के पीछे मनुष्य का हिसाब भी है पर्याप्त परिमाण में ऐसे संहारक बम बरसाने से आवश्यक परिणाम होगा । मतलब यह है कि शत्रु आत्म- समर्पण कर देगा और हम उससे जो चाहते हैं वह करालेंगे । पर मान लीजिए कि एक सारी प्रजा ने ऐसा निश्चय कर लिया है कि हम किसी भी तरह अत्याचारी के आधीन नहीं होंगे