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 १७०                       युद्ध और अहिंसा
 विषय पर सलाह-मशविरा किया । विलायत में उस समय जो हिन्दुस्तानी लोग रहते थे उनकी एक सभा बुलाई गई और उनके सामने मैंने अपने विचार उपस्थित किये । मेरा यह मत हुश्रा कि विलायत में रहनेवाले हिन्दुस्तानियों को इस लड़ाई में अपना हिस्सा देना चाहिए । अंग्रेज़-विद्यार्थी लड़ाई में सेवा करने का अपना निश्चय प्रकट कर चुके हैं। हम हिन्दुस्तानियों को भी इससे कम सहयोग न देना चाहिए । मेरी इस बात के विरोध में इस सभा में बहुतेरी दलीलें पेश की गईं । कहा गया कि हमारी और अंग्रेजों की परिस्थिति में हाथी घोड़े का अन्तर है- एक गुलाम दूसरा सरदार । ऐसी स्थिति में गुलाम अपने प्रभु की विपत्ति में उसे स्वेच्छापूर्वक कैसे मदद कर सकता है ? फिर जो गुलाम अपनी गुलामी में से छूटना चाहता है, उसका धर्म क्या यह नहीं है कि प्रभु की विपत्ति से लाभ उठाकर अपना छुटकारा कर लेने की कोशिश करे ? पर वह दलील मुझे उस समय कैसे पट सकती थी ? यध्यपि मैं दोनों की स्थिति का महान् अन्तर समझ सका था, फिर भी मुझे हमरी स्थिति बिलकुल गुलाम की स्थिति नहीं मालूम होती थी । उस समय मैं यह समझे हुए था कि अग्र जी शासन-पद्धति की अपेक्शा कितने ही अप्रजी अधिकारियों का दोष अधिक था और उस दोष को हम प्रेम से दूर कर सकते हैं । मेरा यह खयाल था कि यदि अप्रजो के द्वारा श्रार उनकी सहायता से हम अपनी स्थिति का सुधार चाहते हों तो हमें उनकी विपत्ति के समय सहायता पहुँचाकर