पृष्ठ:Yuddh aur Ahimsa.pdf/१८२

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लड़ाई में भाग १७३ उन्होंने इसमें खूब दिलचस्पी ली थी। उनके साथ मेरा वह प्रथम ही परिचय था। उन्होंने कपड़े को ब्योंत कर मेरे सामने एक ढेर रख दिया और कहा कि जितने सिला सको, उतने सिलाकर मुझे दे देना! मैंने उनकी इच्छा का स्वागत करते हुए घायलों की शुश्रूषा की तालीम के दिनों में जितने कपड़े तैयार हो सके, उतने करके उनको दे दिये।


आत्मकथा: भाग ४, अध्याय ३८