पृष्ठ:Yuddh aur Ahimsa.pdf/१९३

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२६४ युद्ध और अहिंसा शास्त्र के अनुसार उसका बहिष्कार करना चाहिए या फिर भंग करना उचित हो तो वैसे कानूनों का सविनय भंग करके जेल का रास्ता ढुँढना चाहिए । अथवा मुझे उसकी युद्ध-प्रवृत्ति में भाग लेकर उसका विरोध करने की शक्ति और अधिकार प्राप्त करना चाहिए । ऐसी शक्ति मुम्कमें नहीं थी । इसलिए मैंने माना कि मेरे पास युद्ध में भाग लेने का ही रास्ता बचा है ।” ( भाग ४ : श्रध्याय ३ ६ ) “आप युद्ध में शरीक होकर युद्ध की हिंसा का विरोध करने के लिए कौनसी योग्यता, कौनसी शक्ति प्राप्त करना चाहते थे ? “मैं देखता हूँ कि लड़नेवाले दूसरे देशों के निवासियों की बनिस्बत आपकी स्थिति न्यारी थी । वे तो सेना में भर्ती किये जा सकते थे किन्तु आप नहीं और इसलिए निष्क्रिय प्रतिरोध का रास्ता आपके लिए स्वभावतः ही नहीं खुला हुआ था । और अधिकार का बल पीठ पर हुए बिना युद्ध का सार्वजनिक रूप से विरोध जताना तो इससे भी बुरा था । लेकिन उसके लिए जितनी आवश्यक थी उससे अनुमात्र भी ज्यादा, विवश होकर, साम्केदारी क्यों अपने ऊपर ले ली ? “यद्यपि ऊपर के उदाहरण से जान पड़ता है कि आप युद्ध का विरोध कर सकने की ताकत पैदा करने के लिए लड़ाई में शरीक हुए किन्तु दूसरी जगहों में आप खुलासा कहते हैं कि आपको आशा थी कि लड़ाई में शामिल होने से आपको अपनी और आपके देश की स्थिति अच्छी होगी-और यह पढ़कर जान पड़ता है कि यह उन्नति केवल लड़ाई का विरोध भर करने के लिए ही नहीं थी ।