पृष्ठ:Yuddh aur Ahimsa.pdf/१९५

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१८६ युद्ध और् हिंसा कच्चाइयों या असम्पूर्णताओन् को तबतक सहन करता रहता हूँ जबतक कि उनपर प्रकाश डालने का अव्सर मैं पा या बना न लूँ । मुझे लगा कि अगर मैं यथेष्ट सेवा करके वह शक्ति, वह विश्वास पैदा करलूँ कि साम्राज्य के युद्धों और युद्ध की तैयारियों को रोक सकूँ तो मेरे जैसेआदमी के लिए यह बड़ी अच्छी बात होगी जो खुद अप्ने ही जीवन में अहिमस का व्यवहार करना चाहता है तथा यह भी जाँचना चाहता है कि सामूहिक रूप में इसका कहाँ तक उपयोग किया जा सकता है । दूसरा उद्दश्य साम्राज्य के राजनीतियोन् की सहायता से स्वराज्य की योग्यता पैदा करने का था । साम्राज्य के इस जीवन-मरण की समस्या में उसे सहायता दिये बिना यह योग्यता मुझे में आ नहीं सकती थी । यहाँ यह भी समझ् लेना चाहिए कि मैं सन् १९१४ ई की अप्नी मानसिक स्थिति की बात लिख रहा हूँ जबकि मैं ब्रिटिश साम्राज्य और हिन्दुस्तान के उसके स्च्पच्छ्र्पूर्वक् सहायता देने की बात में विश्वास करता था । अगर् मैं तब भी आज्-जैसा अहिसक विद्रोही होता तोअवश्य ही सहायता न देता बल्कि अहिम्सा के जरिये जिस जिस तरह उनका उद्दश्य चौपट होता, करने की सभी कोशिशें करता । युद्ध के प्रमेराति विरोध और उसमें अविश्वास तब भी आज के ही जैसे सबल थे । मगर हमें यह मानना पड़ता है कि हम बहुत से काम करना नहीं चाहते तो भी उन्हें करते ही हैं । मैं छोटे से छोटे सजीव प्राणी को मारने के उतना ही