पृष्ठ:Yuddh aur Ahimsa.pdf/२०१

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१६.२ युद्ध और अहिंसा प्रश्न् बुद्धि का नहीं बल्कि हृदय का है् । सन्मार्ग तो परमात्मा की सतत प्रार्थना से, अतिशय नम्रता से, आत्मविलोपन से, आत्म्त्याग करने को हमेशा तैयार बैठे रहने से मिलता है । इसकी साधना के लिए ऊँचे से ऊँचे प्रकार की निर्भयता और साहस की आवश्क्ता है । मैं अपनी निर्बलताओं को जानता हूँ और मुझे उनका दुःख है। मगर मेरे मन में कोई दुविधा नहीं है। मुझे अपने कर्तव्य का स्पष्ट भान है । अहिंसा और सत्य को छोड़कर, हमारे उद्धार का कोई दूसरा रास्ता नहीं है। मैं जानता हूँ कि युद्ध एक तरह की बुराई है् और शुद्ध बुराई है। मैं यह भी जानता हूँ कि एक दिन इसे बंद होना ही है । मेरा पक्का विश्वश है् कि खूनखराबी या धोखेबाजी से ली गयी स्वाधीनता, स्वाधीनता है ही नहीं । इसकी अपेक्षा कि मेरे किसी काम से अहिंसा का सिद्धान्त ही गलत समझा जाय या किसी भी रूप में मैं असत्य और हिंसा का हामी समझा जाऊँ, यही हजारगुना अच्छा है कि मेरे विरुद्ध लगाये गये सभी अपराध अरक्षणीय असमर्थनीय समझे जायें । संसार हिंसा पर नहीं टिका है, असत्य पर नहीं टिका है किन्तु उसका आधार अहिंसा है, सत्य है । हृिन्दी 'नवजीवन' : २० सितम्बर, १३ २८