पृष्ठ:Yuddh aur Ahimsa.pdf/२०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

१६८ युद्ध और अहिंसा करने की पूरी-पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए। हमें यहाँ इस बात पर विचार करना है कि क्या हम पाश्चात्य देशों की नकल-भर करना चाहते हैं ? वे आज जिस नरक में से गुजर रहे हैं क्या हम भी उसी रास्ते जाना चाहते हैं ? और फिर भी आशा रखते हैं कि भविष्य में किसी समय हम पुनः दूसरे पथ के पथिक बन जायेंगे ? या हम अपने सनातन शान्ति-पथ पर दृढ़ रहकर ही स्वराज्य पाना और दुनिया के लिए एक नया मार्ग खोज निकालना चाहते हैं ? तलवार-त्याग की इस नीति में भीरुता को कहीं कुछ भी स्थान नहीं है । अपने संरक्षण के लिए हम अपना शस्त्रबल बढ़ावें और मारक शक्ति में वृद्धि भी करें, तो भी अगर हम दुःख सहने की अपनी ताकत नहीं बढ़ाते, तो यह निश्चय है कि हम अपनी रक्षा कदापि न कर सकेंगे । दूसरा मार्ग यह है कि हम दुःख सहन करने की ताकत बढ़ाकर विदेशी शासन के चंगुल से छूटने का प्रयत्न करें। दूसरे शब्दों में, हम शान्तिमय तपश्चर्या का बल प्राप्त करें । इन दोनों तरीकों में वीरता की समान आवश्यकता है । यही नहीं, बल्कि दूसरे में व्यक्तिगत वीरता के लिए जितनी गुंजाइश है, पहले में उतनी नहीं। दूसरे पथ के पथिक बनने से भी थोड़ी-बहुत हिंसा का डर तो रहता ही है, मगर यह हिंसा मर्यादित होगी और धीरे-धीरे इसका परिमाण घटता जायेगा । आजकल हमारा राष्ट्रीय ध्येय अहिंसा का ध्येय है। मगर मन