पृष्ठ:Yuddh aur Ahimsa.pdf/२०८

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कौनसा मार्ग श्रेष्ठ है ? १६६ और वचन से तो हम मानों हिंसा ही की तैयारी करते हैं । सारे देश में अधीरता का वातावरण फैला हुआ है, ऐसे समय हमारे हिंसा में प्रवृत्त न होने का एकमात्र कारण हमारी अपनी कमजोरी है । ज्ञान और शक्ति का भान होते हुए भी तलवार-त्याग करने में ही सच्ची अहिंसा है । मगर इसके लिए कल्पना-शक्ति और जगत की प्रगति के रुग्घ को पहचानने की शक्ति होनी चाहिए । आज हम पश्चिमी देशों की बाहरी तड़क-भड़क से चौंधिया गये हैं, और उनकी उन्मत्त प्रवृत्तियों को भी प्रगति का लक्षण मान बैठे हैं । फलस्वरूप हम यह नहीं देख पाते कि उनकी यह प्रगति ही उन्हें विनाश की ओर् ले जा रही है। हमें समझ लेना चाहिए कि पाश्चात्य लोगों के साधनों द्वारा पश्चिमी देशों की स्पर्धा में उतरना अपने हाथों अपना सर्वनाश करना है। इसके विपरीत अगर हम यह समझ सके कि इस युग में भी जगत नैतिक बल पर ही टिका हुआ है, तो अहिंसा की असीम शक्ति में हम अडिग श्रद्धा रग्घ सकेंगे और उसे पाने का प्रयत्न कर सकेंगे । सब कोई इस बात को मंजूर करते हैं कि अगर सन १६२२ में हम अन्त तक शान्तिपूर्ण वातावरण बनाये रखने में सफल होते तो हम अपने ध्येय को सम्पूर्ण सिद्ध कर सकते । फिर भी हम इस बात की जीती-जागती मिसाल तो पेश कर ही सके थे कि नगण्य-सी अहिंसा भी कितनी असाधारण हो सकती है । उन दिनों हमने जो उन्नति की थी, आज भी उसका प्रभाव कायम है । सत्याग्रह-युग के पहले की भीरुता आज हम में नहीं